Israel Palestine Issue: मज़हब के चश्मे से इज़राइल और फिलिस्तीन का मसला हल नहीं हो सकता
अब्दुल हक़ (अब्दुल्ला )
जब हम इज़राइल और फिलिस्तीन (Israel Palestine Issue) की बात करते हैं तो ये लड़ाई इज़राइल और फिलिस्तीन के लिए ज़मीन और अपने वजूद को बचाने की लड़ाई है। ये लड़ाई उनके लिए उनके अपने मकानों को बचाने की है। ये लड़ाई उनकी अपनी विरासत को बचाने की है। उनके लिए ये लड़ाई उनके मरते लोगों की है। दरअसल इस लड़ाई के पीछे पूंजीवाद की अपनी सोची समझी साजिश है, जिसका केंद्र बिंदु खुद इज़राइल बन चुका है। उसने इतने वर्षों में अपने आप को तकनीकी स्तर पर इतना मजबूत कर लिया है कि वो खुदमुख्तार हो चुका है। इसे हम हथियारों से जोड़कर भी देख सकते हैं, और दूसरी और ख़ास वजह आलमी जंग के बाद पूंजीवाद की खैरात पर दुनिया में जंग के खिलाफ अमन के लिए बने यूनाइटेड नेशन की नाकामी के तौर पर भी।
जब पूरी दुनिया में राजनीति की बिसात पर सबसे अहम मुद्दा धर्म होगा तो दुनिया के किसी भी देश में इसे इस्तेमाल उसी तरह से किया जाएगा।
Israel Palestine Issue को देखने का मज़हबी चश्मा
मुसलमान- बैतुल मुकद्दस को यहूदियों से आज़ाद कराकर दुनिया में खिलाफत कायम करना चाहते हैं।
इसाई- यीशु के पवित्र घर को यहूदियों और मुसलामानों से आज़ाद कराकर दुनिया में रोम साम्राज्य की पुनह वापसी करना चाहते हैं।
यहूदी- दुनिया के सबसे पुराने मज़हब को उसकी योग्यता अनुसार उच्च स्थान देना एवं यहूदी मज़हब के सोलोमन मंदिर पर सिर्फ उनका अधिकार होनाय़
हिंदू कट्टरपंथी- हालांकि उनका इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मुस्लिम विरोध में वह इजराइल का सपोर्ट करते हैं।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि ये लड़ाई मज़हब की नहीं है। दरअसल राजनीती की बिसात पर मोहरे की तरह इस्तेमाल होते मज़हब के कट्टरवाद की लड़ाई है।
अहले किताब कौन हैं?
हमको इस बात को समझना होगा कि धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से यहूदी, इसाई और इस्लाम ये आपस में अहले किताब कहलाते हैं। अहले किताब उन्हें कहा जाता है, जिनके पैगंबरों पर किताब नाजिल हुई हो।
जगह एक है, जिस पर तीन धर्म के लोग अपने-अपने खुदा का घर होने के दावा कर रहे हैं। अगर हम मज़हब के ऐतबार से ऐतिहासिक तथ्यों को खंगालते हैं तो यहूदी मज़हब सबसे प्राचीन धर्मों में से है, जिसे इब्राहिमी कहा गया एवं जैकब (याकूब) इज़राइल के नाम से शुरू हुआ माना जाता है। उसके बाद युसूफ के दौर से होते हुवे मोजेज़ तक पहुंचती है। मोजेज़ जिसे मुसलमान (मूसा) के नाम से जानते हैं और सबसे पहली किताब तौरेत मूसा पर ही नाजिल हुई थी। उसके बाद अगली किताब डेविड जो मुसमानों के लिए दाउद हैं, ज़ुबूर नाजिल हुई। दोनों किताबों को मानने वाले यहूदी कहलाये जाते हैं। यीशु यानी ईसा पर इंजील किताब नाजिल हुई और मोहम्मद पर कुरान।
मज़हबी नुक्ता नज़र से ये सब किताब के ऐतबार से एक ही माने जाते हैं और ये एक इश्वर की उपासना में ही आस्था रखते हैं।
बता दूं कि ये सब धार्मिक तथ्यों के आधार पर ही लिख रहा हूं। मेरा काम धर्म की व्याख्या करना नहीं है। हम सिर्फ इस पूरे मामले के ऐतिहासिक पहलू जानने के लिए संदर्भों के आधार पर आकलन करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए मेरा मत यहां शून्य ही रहेगा।
इज़राइल का जन्म ?
धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो ये तीनों मजहबों का रिश्ता इब्राहीम से है, जिसे मसुलमान इब्राहीम के नाम से जानते हैं। उनके पोते का नाम जैकब है, जिसे मुसलमान याकूब के नाम से जानते हैं और याकूब का नाम ही इसराइल था। उनके वंशजों का मज़हब यहूदी था, और फेरो ने उन्हें गुलाम बना लिया था। मोजेज़ ने फेरो की गुलामी के चंगुल से अपनी कौम के लोगों को आज़ाद कराकर दरियाए नील पार कर जिस जगह बसने के लिए पहुंचे उसे नाम दिया गया इज़राइल। यही वो जगह है, जहां इब्राहीम ने अपने बेटे इस्माइल की कुर्बानी देने के लिए उसकी गर्दन पर छुरी चलाई थी। मोजेज़ से लेकर डेविड तक और फिर डेविड की विरासत को संभालते हुए सोलोमन, जिसे मुसलमान सुलेमान के नाम से जानते हैं, ने ही पवित्र घर बैतुल मुकद्दस का निर्माण किया और यहूदी उन्हें यहूदी धर्म का संरक्षक मानते हैं और मुसलमान, और इसाई उन्हें अपना नबी मानते हैं।
यहीं से शुरुआत होती है अहले किताब वाले लोगों की अपनी मान्यताओं की। अब जो लोग मूसा के साथ थे वो यहूदी ही थे, और ईसा से पहले दुनिया का बड़ा मुख्य धर्म यहूदी ही था। ईसा के आने के बाद यीशु के अपने एकांतवास की जगह भी येरुस्लम को बनायी। इस नाते इसाईयों का भी इस जगह को लेकर अपना मत है।
जब इसाई मज़हब शुरू हुआ तो यहूदी मज़हब सिमटता चला गया और दुनिया में बट चुका था। इसाई मज़हब के बाद जब इस्लाम मज़हब आया तो दुनिया में इसाई और यहूदी मज़हब के मानने वालों ने ही इस्लाम को अपनाया और ये दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा तादाद वाला मज़हब बन गया। अब दुनिया में जो यहूदी सिमटते जा रहे थे वो और भी सिमट गए और उनकी तादाद कम होने की वजह से उन पर हर तरफ से जुल्म होने लगा। जुल्म सहते हुए यहूदी अलग-अलग जगहों पर रह रहे थे, और इज़राइल में तब तक इसाई और मुसलमान पापुलेशन ही रह गई थी, बाकी बहुत छोटा हिस्सा यहूदियों का बचा था।
जर्मनी में होलोकास्ट के बाद यहूदियों ने अपनी मात्रभूमि की तरफ आना शुरू किया और धीरे-धीरे इज़राइल में यहूदी दोबारा बसना शुरू हो गए और कुछ ही वर्षों में यहूदी और मुसलामानों के बीच संघर्ष शुरू हो गया, जिसे यूनाइटेड नेशन ने समझौता कराकर लाइन ऑफ़ कंट्रोल बना दिया। तब से इजराइली और फिलिस्तीनी सिर्फ अपनी-अपनी ज़मीन के लिए लड़ रहे है। इसका अंजाम बहुत दर्दनाक हुआ।
2000 से लेकर अभी तक दोनों की आपस की मुठभेड़ों में 10 हज़ार से ज़्यादा फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। उनमें 3000 बच्चे हैं और 1400 के करीब इज़राइली मारे गए हैं और उनमें 150 के करीब बच्चे हैं। घायलों में अनुमानित एक लाख फिलिस्तीनी और 13000 इज़राइली शामिल हैं।
मज़हब का चश्मा पहन कर हम दुनिया से खूंरेजी को ख़त्म नही कर सकते। अगर हमें दुनिया में अमन की तरफ जाना है तो सबसे पहले हमें अमन के लिए पहल के लिए खुद को आगे लाना होगा न कि दुनिया का मुसलमान पूरी दुनिया के यहूदियों को को कोसता रहे, मगर उनको फिलिस्तीन और इज़राइल के मसले को अंजाम तक पहुंचाने में आगे आना होगा।