Corona Diary: आंकड़ों में दुख की हिस्सेदारी
कोरोना डायरी (Corona Diary)—1
(कोरोना काल में सबके अपने अपने दुख हैं। सबकी अपनी अपनी कहानियां। ये निजी भी हैं और सार्वजनिक भी। लेकिन अब जबकि मौत ने सबको धर दबोचा है, जो खबरों की शक्ल में आसपास मंडरा रही है, उसमें तंत्र की बड़ी हिस्सेदारी है। सरकारी आंकड़ों और अपनों की मौतों के बीच के तंतुओं पत्रकार सचिन श्रीवास्तव की यह मार्मिक टिप्पणी।… —संविधान लाइव)
पहले खबरें आंकड़ों में तब्दील हुईं। फिर अब आंकड़े बिल्कुल करीबियों को अपने में समेट रहे हैं। जिनके साथ हंसे, बोले, लड़े उन्हें आंकड़ों में तब्दील होते देख रहे हैं। सत्ता जो आंकड़े जारी कर रही है, उसमें हम उन्हें ढूंढ रहे हैं। जिनका निजी दुख इन आंकड़ों में शामिल नहीं है, वे खुशकिस्मत हैं, लेकिन कब तक?
आखिर बुरी खबर बिल्कुल करीब से गुजर रही है। इस इंतजार में हैं सब कि एक दिन हमें भी छुएगी। एक सप्ताह से अधिक वक्त होने को आया। हर बार बुरी खबर सीधे दिल में जोरदार टीस की तरह पैबस्त हो जाती है।
झारखंड से खबर आई कि गिरधारी राम गौंझू नहीं रहे। जिनके साथ पत्रकारिता का जमीनी मुहावरा रचने की शुरूआत की थी। 2006 पूरा उनके साथ बतियाते, झारखंड के भाषा विज्ञान, नागपुरी भाषा को सीखते गुजरा। अश्विनी पंकज के साथ सहिया पत्रिका निकालने के वे दिन याद में बस गए। वे यादें पूरी तरह जेहन से गुजरी भी नहीं थीं कि परिवार की एक जरूरी कड़ी, मां सा प्यार देने वाली बुआ नहीं रहीं। कहने को हमसफर निक्की की बुआ थीं, लेकिन जब भी मिलीं, उनका लाड़ दुलार आंखों से बरसता रहा। कोलकाता में उन्होंने आखिरी सांस ली।
और अब हम सबके दुलारे, अपने पेट से हंसने वाले, जिंदादिल, हर काम में मदद के लिए तत्पर रहने वाले युसुफ भाई का चले जाना।
एक साथ दुखों की कतार देखते हुए आंसू, टीस, उदासियां, हुमक सब गड्ड मड्ड होते जा रहे हैं। इस बीच फोन, व्हाट्सएप मैसेज, टेलिग्राम संदेश बता रहे हैं कि रेमडेसिविर से लेकर आक्सीजन और वेंटिलेटर तक की कमी से त्राहिमाम है। यानी बुरी खबरों का सिलसिला अभी जारी रहेगा। सरकार दुखों के आंकड़े जारी कर रही है। हम इन दुखों को भुगतने के लिए अभिशप्त हैं।
कुछ न कर पाने की मजबूरी हताशा में बदलती जा रही है और शरीर का तापमान धीरे धीरे नीचे जाने लगता है। हाथ पैर सुन्न होने लगते हैं। फिर फोन की घंटी बजती है और कभी इंदौर, कभी भोपाल, कभी लखनउ तक में फोन लगाकर, मैसेज करके फिर अस्पतालों की व्यवस्थाओं का हाल जानने की कोशिश करते हैं। क्योंकि फिर कोई करीबी, कोई अपना सांसों से युद्ध लड़ रहा है।
जो लोग कहते हैं, उन्होंने दुख देखा है, वे झूठ बोलते हैं। दुख को देखा नहीं जा सकता। महसूस भी नहीं किया जा सकता। दुख जब आता है, तो अपने पूरे वजन के साथ उपर से गुजरता है। कुछ भी देखने, सोचने, महसूस करने की ताकत को हमसे खींचकर हमें सुखा देता है। हाथ सुन्न हो जाते हैं, जेहन में तीखी आवाजें घेरा डाल लेती हैं और मुंह से शब्द फिसलकर हवा में घुल नहीं पाते। बस आंख की कोर या फिर दिल की धड़क से महसूस होता है कि कहीं कुछ टूटा है।
फिर वे सारे पल एक साथ सामने से गुजर जाते हैं, जो अपनों के साथ जिये थे। सचमुच जिये थे।
मुझे नहीं पता आप कैसा महसूस कर रहे हैं। लेकिन लगता है कि जिन्हें प्यार करते हैं, जिन्हें कभी खोना नहीं चाहते। जिनके साथ दुनिया को बेहतर बनाने के सपने देखे हैं। उन सबको बाहों में भींच लें। एक दूसरे की मुट्ठी को कसकर बांध लें और फिर पूरी मुस्तैदी से इनकार करें किसी भी दुख को पास फटकने से।
अब किसी और को खोना गंवारा नहीं कर सकते। अगर हम किसी को खोते हैं, तो अपनी कमजोरी, अपनी असहायता, अपनी सुविधाओं के कारण। सुखों की दवाएं यहीं मौजूद हैं, बस उन तक हमारी पहुंच जिस तंत्र ने मुश्किल बना दी है, उसे तोड़े बिना कोई चारा नहीं है।
तंत्र ने अपने लिए एक सुरक्षित दायरा तैयार कर लिया है और हमें सिर्फ जिंदा रहने को जीवन का नाम देने की पूरी तैयारी भी साथ साथ की है। यह तैयारी लंबी है। और हम बेहद अस्त व्यस्त।
जारी…