Namami Gange Programme: नौ दिन चले अढ़ाई कोस

पंकज चतुर्वेदी

Namami Gange Programme: नदियों को अहर्निश मां, पुण्‍य-सलिला, जीवन-दायिनी आदि का दर्जा देते रहने वाला समाज और उसके वोट से बनी सरकारें नदियों के साथ क्या और कैसा व्यवहार करते हैं, इसे जानने के लिए गंगा की बानगी काफी है। हजारों करोड़ रुपयों का बजट, तरह-तरह के विभाग-मंत्रालय और भांति-भांति का पदनाम धारी अमला गंगा को कैसे साफ करता है इसे लेखक और ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के सहायक सम्पादक पंकज चतुर्वेदी के इस लेख से समझा जा सकता है। 

पिछले दिनों, कोई तीन साल बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संपन्न हुई ‘नमामि गंगे परियोजना’ (Namami Gange Programme) की समीक्षा बैठक में यह बात तो सामने आ ही गई कि जितना धन और लगन इस महत्वाकांक्षी परियोजना (Namami Gange Programme) में समर्पित किया गया, उसके अपेक्षित परिणाम नहीं आये। केंद्र ने वित्तीय वर्ष 2014-15 से 31 अक्टूबर, 2022 तक इस परियोजना (Namami Gange Programme) को कुल 13,709.72 करोड़ रुपये जारी किए और इसमें से 13,046.81 करोड़ रुपये खर्च हुए। सबसे ज्यादा पैसा 4,205.41 करोड़ रुपये उत्तरप्रदेश को दिया गया क्योंकि गंगा की 2,525 किलोमीटर लंबाई का लगभग 1,100 किलोमीटर हिस्सा उत्तरप्रदेश में पड़ता है। इतना धन खर्च होने के बावजूद गंगा में गंदे पानी के सीवर मिलने को रोका नहीं जा सका और यही इसकी असफलता का बड़ा कारण है।

भारत सरकार द्वारा 2014 में गंगा के प्रदूषण को कम करने और नदी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से शुरू किए गए ‘स्वच्छ गंगा के लिए राष्ट्रीय मिशन’ पर ‘संयुक्त राष्ट्र जैव-विविधता सम्मेलन’ में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा के मैदानी हिस्सों की सेहत सुधारने के उद्देश्य वाली यह परियोजना (Namami Gange Programme)दुनियाभर की उन 10 अति महत्वपूर्ण पहलों में से एक है जिसे ‘संयुक्त राष्ट्र’ ने प्राकृतिक दुनिया को बहाल करने की भूमिका के लिए पहचाना है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि गंगा के हालात इस परियोजना के शुरूआती स्थल हरिद्वार में भी उतने ही बुरे हैं, जितने औद्योगिक कचरे के लिए कुख्यात कानपुर या शहरी नाबदान को नदी में मिलाने के लिए बदनाम बिहार में। आज गंगा को दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में छठे स्थान पर रखा गया है।

वर्ष 2014 में शुरू हुई इस परियोजना (Namami Gange Programme)के अंतर्गत कोई बीस हज़ार करोड़ रूपये की लागत से ‘सीवेज ट्रीटमेंट अवसंरचना,’ नदी तट पर घाट और श्मशान निर्माण, नदी-सतह की सफाई आदि कार्य किया जाना था। कागजों पर यह जितनी लुभावनी लगती है, जमीन पर इसका कोई असर दिख नहीं रहा। ‘नमामि गंगे परियोजना’ (Namami Gange Programme) की शुरुआत में दावा किया गया था कि 2019 तक गंगा को स्वच्छ कर दिया जाएगा। इस तारीख के तीन साल बीत जाने के बावजूद इस ‘राष्ट्रीय नदी’ में अब भी 60 फीसदी सीवेज गिराया जा रहा है। करोड़ों लोगों की आस्था वाली गंगा का पानी 97 स्थानों पर आचमन के लायक भी नहीं है।

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अदालत में सरकार भी स्वीकार करती है कि बिहार में गंगा किनारे सीवेज उपचार की सबसे खराब स्थिति है। राज्य में 1100 एमएलडी (मिलियन/लीटर/डेली) सीवेज की निकासी होती है और सिर्फ 99 एमएलडी सीवेज का उपचार किया जा रहा है, यानी 1010 एमएलडी सीवेज सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। पडौसी राज्य झारखंड में 452 एमएलडी सीवेज की निकासी होती है और कुल 68 फीसदी का ही उपचार किया जाता है। गंगा अवतरण वाले राज्य उत्तराखंड में सीवेज निकासी तो 329-3 एमएलडी होती है, लेकिन सिर्फ 234-23 एमएलडी यानी 59 फीसदी का ही उपचार होता है।

गंगा किनारे के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में 5500 एमएलडी सीवेज निकासी होती है। यहां भी क्षमता से काफी कम 3033-65 एमएलडी यानि कुल क्षमता के 83 फीसदी सीवेज का ही उपचार हो रहा है। एक जनहित याचिका के उत्तर में सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट को बताया था कि गंगा किनारे प्रदेश में 26 शहर हैं और अधिकांश में सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट नहीं है। सैकड़ों उद्योगों का गंदा पानी सीधे गंगा में गिर रहा है। नदी के विसर्जन राज्य पश्चिम-बंगाल में 2758 एमएलडी सीवेज की निकासी हर रोज होती है, जबकि 1236-981 एमएलडी सीधे गंगा में गिराया जा रहा है।

उत्तरप्रदेश में प्रदूषित गंगा का नमूना कानपुर है जहां सात सालों में जुलाई-2022 तक 800 करोड़ से अधिक खर्च हुआ, लेकिन ‘प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ ही कहता है कि कई जगह पानी जहरीला है। एक रिपोर्ट बताती है कि गंगा में कई स्थानों पर विशेषकर जाजमऊ क्षेत्र में गंगा के जल में बीओडी (बायो डिजाल्व ऑक्सीजन) निर्धारित मात्रा से डेढ़ गुना ज्यादा है। जाहिर है कि पानी के भीतर ऑक्सीजन की कमी बढ़ती जा रही है।

यह स्पष्ट दिखाता है कि गंगा में टेनरियों और सीवरेज का कचरा नालों के जरिये लगातार गिराया जा रहा है। शुरुआत में गंगा नदी के लिए लाइलाज बने सीसामऊ नाले को केंद्र सरकार की सक्रियता के चलते बंद तो करा दिया गया, लेकिन अभी भी करीब सात नाले ऐसे हैं, जिन्हें रोका नहीं जा सका है। ‘राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन’ की रिपोर्ट में पाया गया कि गंगा के प्रमुख पांच राज्यों में सभी सीवेज अपनी क्षमता के महज 68 फीसदी ही सक्रिय हैं।

गंगा प्रदूषण मामले की सुनवाई के दौरान बड़ा खुलासा हुआ कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अडानी की कंपनी चला रही है और सरकार के साथ उसके करार में दर्ज है कि किसी समय प्लांट में क्षमता से अधिक गंदा पानी आया तो शोधित करने की जवाबदेही कंपनी की नहीं होगी। इस पर कोर्ट ने कहा, ‘‘ऐसे करार से तो गंगा साफ होने से रही। योजनाएं इस तरह की बन रही हैं जिससे दूसरों को लाभ पहुंचाया जा सके और जवाबदेही किसी की न हो।’’

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एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही इलाहाबाद हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति एमके गुप्ता तथा न्यायमूर्ति अजित कुमार की पूर्णपीठ ने कहा कि जब ऐसी संविदा है तो शोधन की जरूरत ही क्या है? न्यायालय ने इस बात पर गुस्सा जताया कि ‘प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ मूकदर्शक बना हुआ है और कहा कि ‘‘इस विभाग की जरूरत ही क्या है, इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। कार्यवाही करने में क्या डर है? कानून में बोर्ड को अभियोग चलाने तक का अधिकार है।’’

गंगा के किनारे अधिक अन्न उगाने का चस्का लगा है और इसके लिए जहरीले रसायन को धरती में झोंका जाता है। अनुमान है कि नदी तट के खेतों में हर साल करीब सौ लाख टन उर्वरकों का इस्तेमाल होता है जिसमें से पांच लाख टन बहकर गंगा में मिल जाते हैं। इसके अलावा 1500 टन कीटनाशक और सैकडों टन रसायन कारखानों, कपडा मिलों, डिस्टिलरियों, चमडा उद्योग, बूचडखाने, अस्पताल और अन्य फैक्टरियों का प्रदूषित अपद्रव्य गंगा में मिलता है। 400 करोड लीटर अशोधित अपद्रव्य, 900 करोड अशोधित गंदा पानी गंगा में मिल जाता है।

नगरों और मानवीय क्रियाकलापों से निकली गंदगी नहाने-धोने, पूजन सामग्री, मूर्ति विसर्जन और दाह संस्कार से निकला प्रदूषण गंगा में समा जाता है। भारत में गंगा तट पर बसे सैकडों नगरों का 1100 करोड लीटर अपशिष्ट प्रतिदिन गंगा में गिरता है। गंगा में उद्योगों से 80 प्रतिशत, नगरों से 15 प्रतिशत तथा आबादी, पर्यटन तथा धार्मिक कर्मकांड से 5 प्रतिशत प्रदूषण होता है। आबादी की बाढ के साथ पर्यटन, नगरीकरण और उद्योगों के विकास ने प्रदूषण के स्तर को आठ गुना बढाया है।

ऋषिकेश से गंगा पहाडों से उतरकर मैदानों में आती है, उसी के साथ गंगा में प्रदूषण की शुरूआत हो जाती है। धार्मिक, पर्यटन, पूजा-पाठ, मोक्ष और मुक्ति की धारणा ने गंगा को प्रदूषित करना शुरू किया। नरौरा के परमाणु संयंत्र से गंगा के पानी का उपयोग और रेडियोधर्मिता के खतरे गम्भीर आयाम हैं। प्रदूषण की चरम स्थिति कानपुर में पहुंच जाती है, वहां चमडा-शोधन और उससे निकला प्रदूषण सबसे गम्भीर है। उस समूचे क्षेत्र में गंगा के पानी के साथ भूमिगत जल भी गम्भीर रूप से प्रदूषित है।

साभार सप्रेस