वैश्विक परिवेश और संघ का भविष्य: चुनौतियां अवसर?
सचिन श्रीवास्तव
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत का एक ऐसा संगठन है, जिसकी जड़ें गहरी हैं और प्रभाव व्यापक है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में हो रहे बदलाव इसके भविष्य को कैसे प्रभावित कर सकते हैं? क्या वैश्विक राजनीति की बदलती धारा संघ को कमजोर करेगी, या यह इसे और मजबूत बनाएगी? यह सवाल भारत की विदेश नीति, वैश्विक दक्षिणपंथी उभार, और देश के भीतर लोकतंत्र और समाज के बदलते स्वरूप पर निर्भर करता है।
दुनिया भर में दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी ताकतों का उभार देखा जा रहा है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी की नीतियां, यूरोप में इटली, फ्रांस, जर्मनी और पोलैंड जैसे देशों में कट्टर राष्ट्रवाद का बढ़ना, रूस में पुतिन की ताकतवर सत्ता, और इज़राइल में नेतन्याहू की यहूदी राष्ट्रवादी सरकार इसका उदाहरण हैं। यह वैश्विक लहर संघ के लिए एक बड़ा अवसर हो सकती है। संघ अपनी हिंदू राष्ट्रवादी सोच को इस दक्षिणपंथी उभार से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ा सकता है। खासकर भारत-अमेरिका और भारत-इज़राइल जैसे गठजोड़ संघ की विचारधारा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर वैधता दे सकते हैं। अगर यह वैश्विक दक्षिणपंथी लहर जारी रहती है, तो संघ न केवल मजबूत होगा, बल्कि अपनी रणनीति को और व्यापक बना सकता है। लेकिन अगर यह लहर कमजोर पड़ती है—जैसे ट्रंप का चुनाव हारना या यूरोप में वामपंथी ताकतों का उभरना—तो संघ को भी झटका लग सकता है।
भारत की विदेश नीति और संघ का रास्ता
मोदी सरकार की विदेश नीति अमेरिका, यूरोप, खाड़ी देशों और Indo-Pacific क्षेत्र के देशों जैसे जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती है। QUAD, G20, और भारत-इज़राइल रक्षा संबंध इसका हिस्सा हैं। यह नीति संघ के लिए फायदेमंद है, क्योंकि सरकार सीधे तौर पर संघ की हिंदुत्ववादी नीतियों का विरोध नहीं करती। इज़राइल और अमेरिका में दक्षिणपंथी सरकारों के साथ दोस्ती संघ को एक तरह की अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता देती है। अगर मोदी सरकार सत्ता में बनी रहती है, तो संघ का प्रभाव बढ़ता रहेगा। लेकिन यह तस्वीर बदल सकती है अगर पश्चिमी देश भारत पर दबाव डालते हैं कि वह संघ की गतिविधियों पर लगाम लगाए। उदाहरण के लिए, अगर भारत की आर्थिक स्थिति बिगड़ती है और वैश्विक निवेशक हिंदुत्ववादी राजनीति को जोखिम मानकर दूरी बनाते हैं, तो सरकार को संघ से समझौता करना पड़ सकता है। ऐसे में संघ के लिए यह एक खतरे की घंटी होगी।
लोकतंत्र और समाज: संघ के सामने दोहरी चुनौती
संघ का सपना एक कट्टर हिंदू राष्ट्र का है, और इसके लिए वह लोकतंत्र को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश करता है। अगर भाजपा 2029 तक सत्ता में रहती है और चुनावी तंत्र, मीडिया, न्यायपालिका जैसी संस्थाओं पर अपना नियंत्रण मजबूत करती है, तो संघ की राह आसान हो सकती है। विपक्ष का बिखराव और राजनीतिक चुनौतियों का अभाव भी संघ के एजेंडे को बिना रुकावट आगे बढ़ने देगा। लेकिन अगर लोकतंत्र को बचाने के लिए जनांदोलन शुरू होते हैं, विपक्ष एकजुट होता है, और जनता हिंदू राष्ट्र के विचार को खारिज करती है, तो संघ को मुश्किल होगी। भारत की युवा आबादी, जो तेजी से बढ़ रही है, कट्टर हिंदुत्व से ज्यादा रोजगार, शिक्षा और आर्थिक विकास की मांग कर रही है। यह बदलाव संघ के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन सकता है।
भारतीय समाज का बदलता स्वरूप
संघ की विचारधारा जातिवादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक सोच पर टिकी है, लेकिन भारत का समाज तेजी से बदल रहा है। दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों में असंतोष बढ़ रहा है, जो संघ की हिंदुत्ववादी राजनीति को चुनौती दे सकता है। इसके अलावा, महिला आंदोलन, मजदूर आंदोलन और छात्र आंदोलन जैसे सामाजिक बदलाव भी संघ की राह में रोड़ा बन सकते हैं। आज का युवा सोशल मीडिया और वैश्विक विचारों से प्रभावित है, जो परंपरागत हिंदुत्व से मेल नहीं खाता। अगर ये बदलाव गति पकड़ते हैं, तो संघ का प्रभाव कम हो सकता है। लेकिन संघ के पास एक तुरुप का इक्का भी है—अगर वह अपनी विचारधारा को “सॉफ्ट हिंदुत्व” में ढाल लेता है और जाति-वर्ग के मुद्दों को संभाल लेता है, तो वह लंबे समय तक प्रासंगिक बना रह सकता है।
संघ का भविष्य क्या होगा?
संघ का भविष्य अंतरराष्ट्रीय और घरेलू कारकों के संतुलन पर टिका है। वैश्विक दक्षिणपंथी उभार और भारत की मौजूदा विदेश नीति इसे मजबूत बना रही है, लेकिन लोकतंत्र और समाज में बदलाव इसके लिए चुनौती हैं। अगर भाजपा 2029 में सत्ता हारती है और विपक्ष मजबूत होता है, तो संघ कमजोर पड़ सकता है। अगर अंतरराष्ट्रीय दबाव सरकार को संघ से दूरी बनाने के लिए मजबूर करता है, तो भी इसका असर होगा। सबसे अहम, अगर भारतीय समाज जातिवाद और धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठता है, तो संघ की प्रासंगिकता घट सकती है। लेकिन अगर संघ समय के साथ अपनी रणनीति में लचीलापन लाता है— जैसे “सॉफ्ट हिंदुत्व” को अपनाना— तो यह न केवल बचा रहेगा, बल्कि मजबूत भी हो सकता है। इसीलिए, संघ को तुरंत कमजोर करना मुश्किल है, लेकिन बदलते परिवेश में उसकी चुनौतियां बढ़ रही हैं।