संघ के सामने चुनौतियां: क्या RSS का प्रभाव कम हो सकता है?
सचिन श्रीवास्तव
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत का सबसे बड़ा दक्षिणपंथी संगठन है, जिसकी वैचारिक, संगठनात्मक और राजनीतिक पकड़ पिछले कई दशकों से मजबूत बनी हुई है। यह संगठन न केवल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का वैचारिक आधार है, बल्कि हिंदू समाज में भी इसकी गहरी पैठ है। लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि संघ का प्रभाव कम हो जाए? क्या कुछ परिस्थितियां इसे कमजोर कर सकती हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि संघ की ताकत सिर्फ उसकी विचारधारा से नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों से भी जुड़ी है।
संघ का प्रभाव काफी हद तक भाजपा के साथ उसके रिश्ते पर टिका है। हालांकि संघ का अस्तित्व भाजपा की सत्ता पर निर्भर नहीं है, लेकिन भाजपा की सफलता निश्चित रूप से संघ की ताकत को बढ़ाती है। अगर भाजपा संघ के नियंत्रण से बाहर निकलने की कोशिश करती है, तो यह संघ के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकता है। मिसाल के तौर पर, अगर भाजपा पूरी तरह से विकासवादी राजनीति— जैसे नरेंद्र मोदी और नितिन गडकरी का मॉडल— अपनाती है और हिंदुत्व से थोड़ी दूरी बनाती है, तो संघ की प्रासंगिकता पर सवाल उठ सकते हैं। इसी तरह, अगर भाजपा में कोई नया नेतृत्व उभरता है, जो संघ की विचारधारा को सीधे चुनौती दे, तो संघ का प्रभाव कम हो सकता है। यह भी संभव है कि 2029 के बाद अगर भाजपा सत्ता से बाहर होती है और वापसी के लिए संघ की कट्टर विचारधारा को छोड़ने का फैसला करती है, तो संघ अलग-थलग पड़ सकता है। लेकिन जब तक भाजपा और संघ का गठजोड़ बना रहेगा, तब तक संघ के सामने कोई गंभीर संकट नहीं आएगा।
सामाजिक बदलाव और संघ की चुनौतियां
संघ की ताकत सिर्फ राजनीति से नहीं, बल्कि हिंदू समाज में उसकी जड़ों से भी आती है। दशकों से “संस्कार शिक्षा” और “संघ परिवार” के जरिए इसने अपनी पकड़ बनाई है। लेकिन अगर समाज में बड़े बदलाव आते हैं, तो यह संघ के लिए चुनौती बन सकता है। मसलन, अगर भारत का युवा वर्ग तर्कवादी, वैज्ञानिक और सेक्युलर सोच की ओर बढ़ता है, तो संघ का वैचारिक आधार कमजोर हो सकता है। आज का युवा सोशल मीडिया और वैश्विक विचारों से प्रभावित हो रहा है, जो संघ की परंपरागत सोच से मेल नहीं खाता। इसी तरह, अगर ग्रामीण और पिछड़े वर्ग के लोग संघ की सांप्रदायिक राजनीति को नकारने लगते हैं, तो इसका सामाजिक आधार कमजोर पड़ सकता है। अगर वामपंथी, समाजवादी या उदारवादी ताकतें मजबूत होती हैं और संघ के खिलाफ प्रभावी प्रचार करती हैं, तो भी इसका असर हो सकता है। हालांकि, संघ की जमीनी पकड़ इतनी मजबूत है कि इसे पूरी तरह उखाड़ना आसान नहीं होगा।
वैश्विक दबाव और संघ का भविष्य
संघ की विचारधारा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और उदारवाद के खिलाफ मानी जाती है, जिसके चलते यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना का शिकार होता रहा है। अगर भारत की विदेश नीति पश्चिमी देशों—जैसे अमेरिका और यूरोप—के साथ गहरे आर्थिक और राजनीतिक संबंधों पर निर्भर हो जाती है, तो संघ की कट्टर विचारधारा एक बाधा बन सकती है। मिसाल के तौर पर, अगर पश्चिमी देश भारत सरकार पर दबाव डालते हैं कि वह संघ जैसी संस्थाओं की गतिविधियों पर लगाम लगाए, तो भाजपा को संघ से दूरी बनानी पड़ सकती है। इसके अलावा, अगर मुस्लिम और दलित विरोधी नीतियों की वजह से भारत पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों की नौबत आती है, तो संघ पर भी इसका असर पड़ सकता है। लेकिन संघ “स्वदेशी” और “राष्ट्रवाद” के नाम पर पश्चिमी प्रभाव को खारिज करने की कोशिश कर सकता है, जिससे उसका प्रभाव पूरी तरह खत्म होने की बजाय सीमित ही रहेगा।
आर्थिक और आंतरिक कारण
संघ के पास हजारों स्कूल, कॉलेज, ट्रस्ट और व्यापारिक नेटवर्क हैं, जो इसे आर्थिक रूप से मजबूत बनाते हैं। लेकिन अगर सरकार संघ से जुड़े संगठनों की फंडिंग पर सख्त कानून बनाती है, तो यह उसकी ताकत को कम कर सकता है। अगर कॉरपोरेट सेक्टर संघ को चंदा देना बंद कर देता है या विदेशी फंडिंग पर प्रतिबंध लगते हैं, तो भी इसका असर होगा। हालांकि, संघ की स्थानीय आर्थिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि इसे पूरी तरह तोड़ना मुश्किल है। इसके अलावा, संघ के भीतर भी चुनौतियां उभर सकती हैं। अगर इसके अंदर यह बहस शुरू होती है कि हिंदुत्व को आधुनिक समय के हिसाब से बदलना चाहिए, या युवा और पुराने नेताओं के बीच संघर्ष बढ़ता है, तो संगठन कमजोर हो सकता है। लेकिन संघ का अनुशासन इतना सख्त है कि आंतरिक विद्रोह की संभावना कम ही दिखती है।
संघ को कमजोर करने की राह
संघ का प्रभाव एकदम खत्म करना शायद संभव न हो, लेकिन इसे कमजोर करने की संभावनाएँ मौजूद हैं। इसके लिए सबसे पहले भाजपा को संघ से अपनी स्वतंत्रता स्थापित करनी होगी, खासकर अगर उसे चुनावी मजबूरी में उदारवादी रुख अपनाना पड़े। दूसरा, भारतीय समाज में वैज्ञानिक और तर्कवादी सोच को बढ़ावा देना होगा, ताकि संघ का वैचारिक आधार कमजोर हो। तीसरा, संघ की आर्थिक ताकत को नियंत्रित करने के लिए उसके फंडिंग स्रोतों पर नजर रखनी होगी। चौथा, भारत की वैश्विक छवि को बचाने के लिए सरकार को खुद संघ की गतिविधियों पर कुछ हद तक लगाम लगानी पड़ सकती है। मिसाल के तौर पर, शिक्षा में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना, सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ जनजागरण चलाना, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संघ की आलोचना को मजबूत करना जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। यह सब मिलकर संघ को कमजोर तो कर सकता है, लेकिन उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसे पूरी तरह मिटाना एक लंबी और जटिल प्रक्रिया होगी।