political representation and reality

एक क्लासिकल दुविधा: प्रतिनिधित्व बनाम वास्तविकता

political representation and realityसचिन श्रीवास्तव
प्रतिनिधित्व बनाम वास्तविकता, एक क्लासिकल दुविधा है। कोई भी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता या सोचने समझने वाला व्यक्ति इससे एक न एक बार जरूर गुजरता है। चाहे वह खुद इस स्थिति का हिस्सा हो या महज एक दर्शक। असल में, जब हम महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों या किसी भी ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदाय के अधिकारों की बात करते हैं, तो हमें यह भी देखने को मिलता है कि इन्हीं समुदायों के भीतर से कुछ लोग चालाकी से अपने निजी हित साधने के लिए इन अधिकारों का इस्तेमाल करने लगते हैं। और बाज मौकों पर इनके उदाहरण देकर पूरे समुदाय पर सवाल उठाए जाते हैं। जैसे— किसी महिला ने अपने अधिकारों के इस्तेमाल के जरिये किसी पुरुष का शोषण किया है, या किसी दलित ने अपने पक्ष में कानून का इस्तेमाल करते हुए किसी अन्य समुदाय के व्यक्ति पर अन्याय किया है। यह प्रति—शोषण से थोड़ा अलग है, लेकिन यह होता है। सामाजिक संरचना में इसकी संभावना हमेशा बनी रहती है कि शोषित वर्ग का कोई व्यक्ति अवसरवादी हो।

इस दुविधा को “प्रतिनिधित्व बनाम वास्तविकता” की समस्या भी कह सकते हैं। जब कोई वर्ग या समूह ऐतिहासिक रूप से शोषित रहा हो, तो उस वर्ग के लिए विशेष अधिकार, सहूलियतें, या सकारात्मक भेदभाव (affirmative action) की नीतियां बनाई जाती हैं। लेकिन जब उसी वर्ग के भीतर कुछ प्रभावशाली, चालाक या विशेष संसाधनों तक पहुंच रखने वाले लोग इन नीतियों का अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दुरुपयोग करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यह सही है या गलत? और अगर यह गलत है, तो इसका विरोध करते वक्त क्या हम पूरे समुदाय पर सवाल उठा सकते हैं? साथ ही ऐसे अवसरवादियों को कैसे पहचानें?

अगर कोई महिला अपने स्त्री होने की पहचान को महज इसलिए इस्तेमाल कर रही है ताकि उसे कोई अतिरिक्त लाभ मिले, जो आमतौर पर किसी ज़रूरतमंद महिला को मिलना चाहिए था, तो क्या यह एक अन्याय नहीं है? इसी तरह, जब कोई अमीर दलित या ताकतवर आदिवासी अपने समुदाय की वास्तविक पीड़ा की आड़ में महज अपने लिए सत्ता और संसाधन जुटा रहा होता है, तो क्या इसे भी ऐतिहासिक अन्याय का प्रतिकार कहा जा सकता है? लेकिन दिक्कत यह है कि अगर कोई इस चालाकी पर सवाल उठाए, तो अक्सर उसे “संवेदनहीन” या “विरोधी” करार दिया जाता है। आप इसके उदाहरण हमारे देश के कई अंचलों में देख सकते हैं। हम यहां उदाहरणों पर बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि इस प्रवृत्ति को खोलने की कोशिश कर रहे हैं। तो सवाल है कि आखिर यह दुविधा कहां जाकर सुलझती है?

भारत के संदर्भ में उदाहरण
political representation and reality1. आरक्षण और अवसरवादिता: भारत में दलितों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण एक ऐतिहासिक अन्याय के सुधार की नीति रही है। लेकिन कई बार देखने में आया है कि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमजोर तबके तक नहीं पहुंच पाता, बल्कि पहले से सशक्त और आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग इसे हथिया लेते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों ने पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठाया है, जबकि वास्तव में जरूरतमंद हाशिए पर ही रह गए।

2. महिला सशक्तिकरण बनाम अवसरवादिता: #MeToo आंदोलन एक महत्वपूर्ण सामाजिक न्याय का अभियान था, लेकिन इसके दौरान कुछ मामलों में झूठे आरोप भी लगे। कई बार यह सवाल उठा कि व्यक्तिगत दुश्मनी या लाभ के लिए किसी पुरुष पर झूठा आरोप लगाने के मामले भी सामने आ सकते हैं। हालांकि, ऐसे अपवाद पूरे आंदोलन को खारिज करने का आधार नहीं बन सकते।

3. दलित-आदिवासी नेतृत्व और वास्तविकता: भारतीय राजनीति में कई ऐसे नेता हुए हैं जो दलित या आदिवासी समुदाय से आते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने उसी समुदाय के गरीब तबकों को हाशिए पर डाल दिया। उदाहरण के लिए, कई दलित नेता जो सत्ता में आए, वे खुद राजनीतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध हो गए, लेकिन उनका नेतृत्व उनके समाज के सबसे गरीब तबकों तक वास्तविक सुधार नहीं पहुंचा पाया।

4. अल्पसंख्यक राजनीति और अवसरवादिता: भारत में कई बार मुस्लिम या अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के नाम पर राजनीति की गई, लेकिन इससे केवल कुछ चुनिंदा लोगों को फायदा हुआ। उदाहरण के लिए, कई राज्यों में मुस्लिम नेताओं ने धार्मिक भावनाओं का उपयोग कर सत्ता हासिल की, लेकिन शिक्षा, रोजगार और आर्थिक सुधारों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

वैश्विक संदर्भ में उदाहरण
1. अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर (BLM) आंदोलन और आलोचना: यह आंदोलन अमेरिका में नस्लीय न्याय की मांग के लिए शुरू हुआ, लेकिन कुछ लोगों ने इसे लूटपाट और हिंसा के बहाने के रूप में भी इस्तेमाल किया। साथ ही, कई बार ऐसे आरोप लगे कि कुछ नेता और कार्यकर्ता इस आंदोलन को सिर्फ अपने राजनीतिक और आर्थिक फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे थे।

यह भी पढ़ें:  कोरोना के आगे दूसरी बीमारियों का इलाज हो रहा मुश्किल से

2. फ्रांस में धार्मिक स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक फायदे: फ्रांस में हिजाब और धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर बहस चलती रहती है। कई बार ऐसा हुआ है कि कुछ संगठन इसे मानवाधिकार के मुद्दे की तरह उठाते हैं, जबकि कुछ मामलों में यह धार्मिक पहचान के राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

3. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के बाद सत्ता और वर्गीय अंतर: रंगभेद खत्म होने के बाद दक्षिण अफ्रीका में काले समुदाय के नेता सत्ता में आए, लेकिन इससे वहां के गरीब काले नागरिकों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ। नेल्सन मंडेला के बाद जो सरकारें आईं, उन पर आरोप लगे कि उन्होंने अपने लिए संपत्ति और सत्ता इकट्ठा की, लेकिन आम जनता के लिए उतना काम नहीं किया जितना अपेक्षित था।

4. फेमिनिज्म और अवसरवादिता: कई देशों में नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं के लिए समान अधिकारों की मांग की, लेकिन कुछ मामलों में इसे झूठे आरोप लगाने या व्यक्तिगत लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया। कुछ हाई-प्रोफाइल मामलों में यह देखा गया कि महिलाओं ने झूठे उत्पीड़न के आरोप लगाए, जिससे पूरे आंदोलन की साख पर सवाल उठने लगे।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि “प्रतिनिधित्व बनाम वास्तविकता” की समस्या सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मौजूद है। किसी भी ऐतिहासिक रूप से शोषित समूह के भीतर भी सत्ता और संसाधनों के लिए अवसरवादिता पनप सकती है। इसलिए, किसी भी सामाजिक-राजनीतिक नीति को बनाते समय केवल पहचान के आधार पर नहीं, बल्कि व्यापक वर्गीय और आर्थिक विश्लेषण के आधार पर इसे देखना जरूरी है।

पहचान की राजनीति बनाम वर्गीय हकीकत
इस पूरी बहस की जड़ पहचान की राजनीति (Identity Politics) और वर्गीय विश्लेषण (Class Analysis) के टकराव में छिपी हुई है। पहचान की राजनीति का मूल आधार यह है कि जिन समुदायों के साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है, उन्हें उनके हक दिए जाएं और उन्हें बराबरी पर लाया जाए। लेकिन समस्या तब आती है जब यह लड़ाई व्यक्तिगत अवसरवादिता का जरिया बन जाती है।

मिशेल फूको, सत्ता और समाज के रिश्तों को गहराई से देखने वाले अनूठे दार्शनिक थे। वे कहते हैं कि सत्ता केवल सरकार या बड़े संस्थानों तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह समाज के भीतर भी अलग-अलग रूपों में चलती रहती है। किसी समुदाय के भीतर भी कुछ ताकतवर लोग सत्ता पर काबिज हो सकते हैं और वे अपने ही समुदाय के कमजोर लोगों को पीछे छोड़ सकते हैं। फूको के मुताबिक, “सत्ता महज ऊपर से नीचे लागू नहीं होती, बल्कि यह रिश्तों और प्रक्रियाओं के जरिए हर जगह फैली होती है।” यानी, जब कोई महिला, दलित या आदिवासी या अल्पसंख्यक विशेष अधिकारों का इस्तेमाल कर रहा होता है, तो जरूरी नहीं कि वह अपने पूरे समुदाय के लिए ऐसा कर रहा हो— संभव है कि वह सत्ता के एक नए रूप का निर्माण कर रहा हो।

इसी संदर्भ में किम्बर्ले क्रेंशॉ की इंटरसेक्शनैलिटी थ्योरी भी बेहद अहम हो जाती है। वे बताती हैं कि उत्पीड़न की प्रकृति एकतरफा नहीं होती। यानी, कोई व्यक्ति एक पहचान के आधार पर शोषित हो सकता है, लेकिन दूसरी पहचान के आधार पर वह खुद किसी और का शोषक भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, एक अमीर दलित नेता जातिवादी सत्ता संरचना का शिकार रहा हो सकता है, लेकिन वह आर्थिक रूप से कमजोर दलितों की आकांक्षाओं को दबाने में खुद एक उत्पीड़क की भूमिका में आ सकता है।

वर्गीय विश्लेषण: क्या उत्पीड़ित भी शोषक बन सकता है?
मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखें तो कोई भी समुदाय एक समान नहीं होता। हर समुदाय में आर्थिक और सामाजिक विभाजन मौजूद होते हैं। हम जानते हैं कि वर्ग संघर्ष ही इतिहास की मूलधारा है और उत्पीड़न की जड़ें केवल पहचान में नहीं, बल्कि आर्थिक असमानता में भी होती हैं। अगर कोई पूंजीवादी दलित या ब्राह्मण मजदूर का शोषण कर रहा है, तो उसे केवल जाति के आधार पर नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसकी वर्गीय स्थिति भी देखनी होगी।

बाबा साहेब अंबेडकर ने भी इस पर विस्तार से चर्चा की थी। वे मानते थे कि जाति व्यवस्था अपने आप में एक उत्पीड़क संरचना है, लेकिन उन्होंने यह भी चेताया था कि जब कोई समुदाय सत्ता हासिल करता है, तो उसके भीतर भी एक नया प्रभु वर्ग (Elite Class) पैदा हो सकता है। यही वजह थी कि वे शिक्षा और संगठन के ज़रिए दलित समाज में आत्मनिर्भरता लाना चाहते थे, ताकि केवल कुछ प्रभावशाली लोग ही पूरे आंदोलन के प्रतिनिधि न बन जाएं।

शिक्षा और उत्पीड़न के मनोविज्ञान को समझने वाले दार्शनिक पाउलो फ्रेरे कहते हैं कि जब कोई उत्पीड़ित समूह सत्ता में आता है, तो अगर वह पुरानी सत्ता संरचना को जड़ से नहीं बदलता, तो वह खुद उसी का हिस्सा बन जाता है। उनका मानना था कि “अगर उत्पीड़ित वर्ग सचेत नहीं हुआ, तो वह स्वयं ही उत्पीड़क में बदल जाएगा।” इसी वजह से वे शिक्षा को मुक्ति का सबसे बड़ा हथियार मानते थे।

यह भी पढ़ें:  Prem Kumar Mani: अंगुलिमाल और अशोक की संततियां

जो लोग दूसरे समूहों पर अत्याचार करने वाली व्यवस्था से निकलकर खुद सत्ता में आ जाते हैं, वे अक्सर उसी शोषण तंत्र को दोहराते हैं। पाउलो फ्रेरे इसे “Oppressor Consciousness in the Oppressed” कहते हैं। इसीलिए नैतिकता का सवाल उठता है— क्या विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति को उसी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में प्रतिनिधि माना जाना चाहिए?

मनोवैज्ञानिक पहलू: क्यों कोई अवसरवादिता का सहारा लेता है?
अब सवाल यह उठता है कि कोई व्यक्ति या समूह ऐसा क्यों करता है? अगर कोई वंचित समुदाय का व्यक्ति विशेष अधिकार का लाभ उठाकर अपने लिए सत्ता और संसाधन जुटा रहा है, तो इसके पीछे क्या मनोवैज्ञानिक कारण हैं?

इसका जवाब नैतिक मनोविज्ञान (Moral Psychology) में छिपा हुआ है। लॉरेंस कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के अलग-अलग स्तर बताए थे, जिनमें सबसे उच्च स्तर सार्वभौमिक नैतिकता (Universal Ethics) का होता है। इस स्तर पर व्यक्ति केवल अपने समुदाय या पहचान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे समाज की भलाई के बारे में सोचता है। लेकिन ज्यादातर लोग इस स्तर तक नहीं पहुंचते। वे केवल अपने व्यक्तिगत लाभ तक सीमित रहते हैं और अपने पक्ष को नैतिक ठहराने के लिए पहचान की राजनीति का सहारा लेते हैं।

यहां जोनाथन हाइट की बात बेहद महत्वपूर्ण है। वे बताते हैं कि लोग अक्सर अपनी पहचान के आधार पर न्याय का निर्धारण करते हैं। वे कहते हैं कि “लोगों की नैतिकता तर्क से कम, भावनाओं और समूह की निष्ठा से ज्यादा संचालित होती है।” यानी, अगर कोई व्यक्ति अपने विशेषाधिकार को नैतिक रूप से सही ठहराने के लिए अपनी जाति, धर्म, या लिंग का इस्तेमाल कर रहा है, तो यह महज एक मनोवैज्ञानिक बचाव तंत्र (Defense Mechanism) हो सकता है।

सामान्यीकरण सही नहीं
हालांकि इस बचाव तंत्र के साथ सभी महिलाओं, दलितों, आदिवासियों या अल्पसंख्यकों को एक नज़र से देखना गलत होगा। क्योंकि यह वही गलती होगी जो पितृसत्ता, जातिवाद, नस्लवाद और वर्गभेद करने वाली ताकतें करती रही हैं। पूरे समुदाय को एकसमान मान लेना। उसका सामान्यीकरण कर देना। किसी भी समूह में वर्गीय, सामाजिक, और आर्थिक विभाजन होते हैं। जो महिलाएं सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर हैं, वे ‘महिला कार्ड’ नहीं खेलतीं बल्कि वास्तव में दमन झेल रही होती हैं। उसी तरह, दलितों या आदिवासियों में भी बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे अब भी अधिकारों की जरूरत है।

इस दुविधा का हल क्या हो सकता है?
इस पूरी समस्या का समाधान यह नहीं है कि हम पहचान की राजनीति को पूरी तरह खारिज कर दें। बल्कि, असली ज़रूरत इसे वर्गीय विश्लेषण और व्यापक सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखने की है। अगर कोई महिला, दलित, अल्पसंख्यक या आदिवासी अपने समुदाय के नाम पर अवसरवादिता का सहारा ले रहा है, तो इसका यह मतलब नहीं कि पूरे समुदाय को दोषी ठहराया जाए। यह समझना ज़रूरी है कि हर समूह के भीतर भी वर्गीय और सामाजिक अंतर होते हैं, और किसी भी नीति को बनाते समय इस पहलू को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

इसके लिए यह जरूरी है कि सामाजिक न्याय की नीतियां महज पहचान के आधार पर न बनें, बल्कि उनमें आर्थिक और सामाजिक स्थिति को भी शामिल किया जाए। जब तक किसी भी समूह के भीतर मौजूद आंतरिक असमानताओं को नहीं समझा जाएगा, तब तक यह दुविधा बनी रहेगी।

यह दुविधा महज भारत तक सीमित नहीं है। यह हर जगह देखने को मिलती है, जहां कोई उत्पीड़ित समूह सत्ता और अधिकारों की ओर बढ़ता है। सही समाधान यही है कि किसी भी समूह को संपूर्णता में न देखा जाए, बल्कि उसमें मौजूद असमानताओं को पहचाना जाए और नीतियां इस आधार पर बनाई जाए कि वास्तविक जरूरतमंदों को ही प्राथमिकता मिले और सामाजिक स्थितियों का भी ध्यान रखा जाए। किसी भी विशेषाधिकार का इस्तेमाल केवल प्रतिनिधित्व तक सीमित न रहे, बल्कि वह वंचितों के वास्तविक उत्थान का जरिया बने।

नीतियों में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने की भी जरूरत है ताकि जो लोग विशेषाधिकार प्राप्त कर रहे हैं, वे सचमुच उस समुदाय की सामूहिक बेहतरी के लिए काम करें। इसके लिए मजबूत सामाजिक संरचनाएं, जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन, और लोकतांत्रिक भागीदारी आवश्यक है।

अंततः, यह दुविधा कोई सरल समाधान नहीं मांगती, बल्कि एक सतत जागरूकता और विश्लेषण की मांग करती है। वास्तविक न्याय वहीं संभव है जहां प्रतिनिधित्व और वास्तविकता के बीच संतुलन बना रहे—जहां पहचान की राजनीति अवसरवादिता का नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का माध्यम बने।