Justice Mishra नियुक्ति विवाद: न्यायिक तंत्र, राजनीतिक गठजोड़ और ताकतवर कॉरपोरेट के बीच अलिखित समझौते की बानगी
सरकार के दुलारे जस्टिस मिश्रा (Justice Mishra) के बारे में 15 तथ्य और एनएचआरसी नियुक्ति विवाद की पृष्ठभूमि
सचिन श्रीवास्तव
31 मई की शाम को मध्य प्रदेश के प्रतिष्ठित कानूनविद परिवार में जन्में अरुण मिश्रा (Justice Mishra) को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय कमेटी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाने का फैसला लिया था। तब से अब तक अरुण मिश्रा (Justice Mishra) के मामले में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। फिर भी कुछ तथ्यों की रोशनी में देखते हैं कि आखिर जिन जस्टिस अरुण मिश्रा (Justice Mishra) को लेकर इतना बवाल मचा हुआ है वह हैं कौन?
Justice Mishra: विवाद और काबलियत से जुड़े 15 तथ्य
1. साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सुप्रीम कोर्ट में चल रही व्यवस्था की आलोचना की थी। इसमें आरोप लगाया था कि अहम मामलों को ख़ास जजों की बेंच में लिस्ट किया जा रहा है। अरुण मिश्रा इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से काफी आहत हुए थे। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस को ग़लत बताया था। चार जजों ने राजनीतिक महत्व या दूसरे महत्वपूर्ण मामलों को ‘जूनियर जजों’ को सौंपने की बात कही। इसके बाद जस्टिस अरुण मिश्रा ने अपनी अदालत में मौजूद लोगों से कहा कि वो ‘जूनियर जज हैं इसलिए कम ही लोग उनकी अदालत में आएं।
2. अरुण मिश्रा का नाम विवादों में तब भी आया, जब वरीयता की सूची में 10वें स्थान पर होने के बावजूद उनकी खंडपीठ के सामने सबसे संवेदनशील न्यायमूर्ति बीएच लोया की हत्या का मामला ‘लिस्ट’ किया गया। जस्टिस लोया गुजरात के सोहराबुद्दीन ‘एनकाउंटर’ केस की सुनवाई कर रहे थे। हालांकि बाद में जस्टिस अरुण मिश्रा ने ख़ुद को लोया मामले से ‘रेक्युज़’ यानी अलग कर लिया था।
3. सुप्रीम कोर्ट से जुड़ा एक और मामला काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा था। वह था पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मी की ओर से यौन उत्पीड़न का आरोप। इस मामले की सुनवाई करने वाली खंडपीठ में ख़ुद मुख्य न्यायाधीश थे। साथ ही तीन सदस्यों में सुप्रीम कोर्ट के 27 जजों में से जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस दीपक गुप्ता शामिल थे।
4. अरुण मिश्रा से जुड़ा एक और विवाद यह है कि ज़मीन अधिग्रहण के एक मामले में उन्होंने फ़ैसला सुनाया। बाद में यह मामला उसी संविधान पीठ को सौंप दिया गया, जिसके वो खुद ही सदस्य थे। होता यह है कि जस न्यायाधीश का फैसला होता है, जब वह खंडपीठ को सौंपा जाता है, तो उसमें अलग जज होते हैं। विवाद तब गहरा गया जब अरुण कुमार मिश्रा ने ख़ुद को उस संविधान पीठ से ‘रेक्युज़’ यानी अलग करने से इनकार कर दिया। मतलब ये कि ख़ुद के दिए गए फ़ैसले को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई में वे ख़ुद भी शामिल थे।
5. अगस्त 2020 में जाने-माने वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर जस्टिस अरुण मिश्रा के ख़िलाफ़ एक उद्योग समूह के कई मामलों को अपनी अदालत में सुनने का आरोप लगाया था। उनका आरोप था कि एक विशेष औद्योगिक समूह के मामले जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ को ही सुपुर्द किए जाते रहे हैं।
6. खबरिया वेबसाइट न्यूज क्लिक में पत्रकार अबीर दासगुप्ता और परंजॉय गुहा ठाकुरता की रिपोर्ट में इस औद्योगिक घराने अडानी समूह यानी देश के दूसरे सबसे अमीर व्यक्ति से जुड़े आठ मामलों का जिक्र है, जो सभी न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अदालत में पहुंचे।
7. जस्टिस अरुण मिश्रा ने फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट का जज रहते हुए प्रधानमंत्री को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त और दूरदर्शी नेता बताया था। एक कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा था- उनकी (पीएम मोदी) की, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा होती है, वे दूरदर्शी हैं और वैश्विक सोच रखते हैं और स्थानीय स्तर पर कार्य करते हैं।
8. सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने जाने-माने वकील प्रशांत भूषण को न्यायालय की अवमानना मामले में दोषी ठहराते हुए उन पर एक रुपए का जुर्माना लगाया था। इस तीन सदस्यीय खंडपीठ की अध्यक्षता जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा ही कर रहे थे।
9. वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा ने गुजरात के चर्चित हरेन पांड्या हत्याकांड का ज़िक्र करते हुए न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा के उस जजमेंट में कई ख़ामियां निकालीं, जिसके तहत खंडपीठ ने गुजरात उच्च न्यायालाल के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया था।
10. न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा उस खंडपीठ के भी सदस्य थे, जो बहुचर्चित ‘सहारा बिरला दस्तावेज़’ मामले की सुनवाई कर रही थी। इस बहुचर्चित मामले में भी राजनेताओं, नौकरशाहों और जजों पर आरोप लगे थे, लेकिन ये मामला अरुण मिश्रा (Justice Mishra) की अदालत ने ख़ारिज कर दिया था।
11. मेडिकल कॉलेज घूस कांड का मामला भी जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ के सामने आया, जिससे तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने ख़ुद को अलग कर लिया था। याचिका में पूरे मामले की जाँच करने का अनुरोध किया गया था, उसे जस्टिस अरुण मिश्रा (Justice Mishra) ने ख़ारिज कर दिया।
12. साल 2000 में क़ानून के सांध्यकालीन कॉलेजों को बंद करने का प्रस्ताव भी उन्होंने ही बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया के सामने रखा था।
13. मध्य प्रदेश के जबलपुर के रहने वाले जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा के पिता हरगोविंद मिश्रा जबलपुर हाई कोर्ट के जज थे, जबकि उनके परिवार में कई रिश्तेदार प्रख्यात वकील हैं। जस्टिस मिश्रा (Justice Mishra) की बेटी भी दिल्ली हाई कोर्ट की वकील हैं।
14. इन विवादों के बीच जस्टिस मिश्रा के बारे में कहा जाता है कि अपने कार्यकाल में उन्होंने लगभग एक लाख मामलों का निपटारा किया है। एडवोकेट्स एक्ट 1961 के तहत विदेश से हासिल की गई क़ानून की डिग्री को भारत में मान्यता के दिशानिर्देश बनाने का श्रेय भी जस्टिस मिश्रा (Justice Mishra) को जाता है।
15. अखिल भारतीय अधिवक्ता कल्याण योजना की शुरुआत का श्रेय भी न्यायमूर्ति मिश्रा को ही जाता है। इन सबके बीच राजस्थान उच्च न्यायलय में एक विधि संग्रहालय की शुरुआत के कारण उनकी ख़ूब सराहना भी हुई।
इन तथ्यों को देखने के साथ यह जानना भी जरूरी है कि 1978 में वकील के तौर पर करियर शुरू करने वाले जस्टिस मिश्रा 1998-99 में सबसे कम उम्र में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन चुने गए। अक्टूबर 1999 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के जज बने। फिर राजस्थान और कलकत्ता हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे। 7 जुलाई 2014 में प्रमोट करके सुप्रीम कोर्ट में जज बनाया गया। इस पद से वह 20 सितंबर 2020 को रिटायर हुए। और अब 31 मई 2021 को उन्हें नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन का चेयरमैन चुना गया। राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उन्होंने 2 जून को पदभार संभाल लिया।
इस क्रम में देखने से लगता है कि एक लंबे कॅरियर के बाद और कानून के क्षेत्र में देश सेवा करने वाले वरिष्ठ व्यक्ति को एनएचआरसी का अध्यक्ष बनाया गया है और यह उपर्युक्त ही है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब इस दौरान जस्टिस अरुणा मिश्रा (Justice Mishra) के कार्यों को भीतर से परखते हैं। हम देखते हैं कि उन्होंने किस मामले में कब और क्या फैसला दिय, तो मामला पेचीदा हो जाता है।
यह नियुक्ति ऐसे व्यक्ति की है जो सुप्रीम कोर्ट का जज (Justice Mishra) रहते हुए खुलेआम प्रधानमंत्री की तारीफ करता है। जज लोया के मामले में सरकार को संकट से बचाता है। सरकार के प्रिय उद्योगपति से जुड़े सारे मामले उन्हीं की अदालत में पहुंचते हैं और हर बार या तो मामला खारिज हो जाता है या फिर उस उद्योगपति को फायदा मिलता है। सरकार की आलोचना करने वाले एक वकील पर जुर्माना लगाया जाता है, तब भी जज की कुर्सी पर अरुण मिश्रा होते हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण देखने बाद लगता है कि कृपापात्रों को नियुक्ति देने की सूची में यह एक और नया नाम है।
पहला नहीं है यह नियुक्ति विवाद
साल 2014 में सामान्य निश्छल सनातनी हिंदुओं की भावनाओं का दोहन करके कारोबारियों की आकांक्षाओं को पूरा करने के रास्ते पर जब मौजूदा सरकार ने चलना शुरू ही किया था, उस वक्त उसका पहला नियुक्ति विवाद एफटीआईआई जैसे संस्थान में गजेंद्र चौहान नामक एक अदने से कलाकार की नियुक्ति से जुड़ा था। जिनकी कुल जमा उपलब्धि यह थी कि उन्होंने बीआर चोपड़ा कृत शानदार धारावाहिक महाभारत में पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर का चरित्र बड़ी खूबी से निभाया था।
इस गजेंद्र विवाद के बाद और अरुण मिश्रा (Justice Mishra) की नियुक्ति से पहले तक मौजदा सरकार के 7 साल के कार्यकाल में विवादों की लंबी सूची रही है। जो कभी किसी की नियुक्ति से जुड़ा होता है, तो कभी किसी के इस्तीफे से। यानी सरकार के प्रिय पात्रों का पदों पर बैठना और सरकार के नक्शेकदम पर न चल पाने पर इस्तीफा देने का सिलसिला नया नहीं है। नया है तो हर बार उस शख्स का चेहरा जो सरकारी कृपा का पात्र बना है।
पहले भी सरकारें करती रही हैं कृपापात्रों की नियुक्ति
दिक्कत यह है कि हम एकांगी ढंग से सोचने के आदी हो चुके हैं। अपने कृपापात्रों को अच्छी पोस्टिंग देने का भारतीय लोकतंत्र का लंबा इतिहास रहा है और कोई भी सरकार इस गंदगी से अछूती नहीं रही है। ज्यादातर मौकों पर प्रतिभा और मेधा के बजाय सरकारी सिस्टम में पैठ ही नियुक्ति, पदोन्निति और जिम्मेदारी के पदों पर सुशोभित होने का एकमात्र रास्ता रहा है।
संस्थानों पर हमले में इजाफा
मौजूदा सरकार ने उसमें एक और बात जोड़ दी है। वह अपनी पसंदीदा नियुक्ति के साथ उस संस्थान की वैधता को भी खत्म कर देती है। हालांकि एनएचआरसी यानी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के बारे में पहले से ही कहा जाता रहा है कि यह नखदंत विहीन संस्थान है। लेकिन फिर भी ताजा नियुक्ति विवाद एनएचआरसी की बची खुची साख पर आखिरी हमला है।
एकमात्र विपक्षी सदस्य की असहमति
प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की उच्च स्तरीय समिति ने NHRC के अध्यक्ष के चयन की औपचारिकता को जब पूरा किया तो खड़गे ने इस बात पर आपत्ति जताई कि NHRC में दलित, आदिवासी या अल्पसंख्यक सदस्य का चयन भी होना चाहिए। लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई। खड़गे ने तुरंत ही प्रधानमंत्री को अपनी असहमति से जुड़ी चिट्ठी भी लिखी है। वे कमेटी में मौजूद विपक्ष के एकमात्र सदस्य थे और उन्होंने खुद को चयन प्रक्रिया से अलग कर लिया है।
खडगे ने अपने पत्र में लिखा— मैंने मीटिंग में अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यकों के ऊपर अत्याचार को लेकर चिंता जताई थी। मैंने प्रस्ताव रखा था कि इस वर्ग के व्यक्ति को NHRC का अध्यक्ष बनाया जाए। या फिर सदस्यों में इस वर्ग का कम से कम एक व्यक्ति रखा जाए। चूंकि कमेटी ने मेरी किसी भी सिफारिश को नहीं माना है। इसलिए मैं NHRC के अध्यक्ष और सदस्यों के चुने जाने के कमेटी के फैसले पर असहमति व्यक्त करता हूं।
जाहिर है पांच सदस्यों की समिमि में से एक सदस्य की असहमति कोई मायने नहीं रखती है और लोकतांत्रिक परंपराओं के मद्देनजर इस नियुक्ति को वैध ही माना जाना चाहिए।
एनएचआरसी अध्यक्ष का पद और नियमों में बदलाव
NHRC के अध्यक्ष का पद दिसंबर 2020 से खाली था। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू इसके अध्यक्ष थे। यह पहली बार है जब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के अलावा किसी जज की नियुक्ति इस पद पर की गई है। हालांकि इसके लिए नियमों में बदलाव की औपचारिकता सरकार पहले ही कर चुकी है।
कुल मिलाकर जस्टिस मिश्रा (Justice Mishra) की नियुक्ति मौजूदा सरकार के नियुक्ति विवादों में एक और इजाफा ही है। इसके इतर यह न्यायिक तंत्र, राजनीतिक गठजोड़ और ताकतवर कॉरपोरेट के बीच हो चुके एक अलिखित समझौते की बानगी भी है, जिसमें सभी की भूमिका तय है। इस सबके बीच उम्मीद इस बात से की जा सकती है कि इस नियुक्ति और ऐसी नियुक्तियों का विरोध करने वाले जमीनी लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यानी लोग अब नियमों के तहत किए गए सरकार के संदिग्ध कामों पर उंगली उठाने लगे हैं, जो सत्ता को बेतरह चुभ रहा है, चुभना भी चाहिए।