संघ विहीन भारत की भूमिका और वैश्विक राजनीतिक ताकत
सचिन श्रीवास्तव
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत की राजनीति में एक ऐसी ताकत रहा है, जिसने न केवल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को आकार दिया, बल्कि देश के सामाजिक और वैचारिक परिदृश्य को भी प्रभावित किया। लेकिन अगर संघ कमजोर होता है या खत्म हो जाता है, तो भारत की राजनीति में क्या बदलाव आएंगे? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब भाजपा, कांग्रेस, वामपंथी दलों और क्षेत्रीय पार्टियों की भविष्य की भूमिका पर निर्भर करता है। संघ की अनुपस्थिति न केवल दक्षिणपंथी राजनीति को प्रभावित करेगी, बल्कि विपक्ष के लिए भी नए अवसर और चुनौतियां लेकर आएगी।
भाजपा के लिए संघ का कमजोर होना या खत्म होना एक बड़े बदलाव का संकेत होगा। अगर अंतरराष्ट्रीय दबाव, आंतरिक कलह, या सत्ता में बने रहने की मजबूरी के कारण भाजपा संघ से अलग होती है, तो उसे अपनी पहचान को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में भाजपा हिंदुत्व की जगह “राष्ट्रवाद और विकास” को अपना मुख्य आधार बना सकती है। नेताओं की नई पीढ़ी, जैसे एस. जयशंकर, नितिन गडकरी या हिमंता बिस्वा सरमा, जो व्यावहारिक और विकास-केंद्रित दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं, आगे आ सकते हैं। यह पार्टी गुजरात मॉडल या उत्तर प्रदेश मॉडल जैसे आर्थिक और प्रशासनिक सफलताओं पर जोर दे सकती है। लेकिन यह राह आसान नहीं होगी। भाजपा का कोर वोट बैंक कट्टर हिंदुत्व से जुड़ा है, और संघ के बिना यह बिखर सकता है। अगर पार्टी पूरी तरह संघ से अलग हो जाती है, तो उसे दक्षिणपंथी संगठनों या धर्मगुरुओं से नया समर्थन जुटाना होगा, जो एक जटिल चुनौती होगी।
हिंदुत्व का दूसरा रास्ता और विपक्ष की राह
दूसरी ओर, अगर संघ खत्म होता है, लेकिन भाजपा हिंदुत्व को बनाए रखने का फैसला करती है, तो वह नए हिंदू संगठनों जैसे अखिल भारतीय संत परिषद, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल या रामराज्य परिषद के सहारे अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकती है। इस स्थिति में भाजपा हिंदू राष्ट्रवाद को संस्थागत रूप देने की कोशिश कर सकती है—जैसे समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण कानून, या धार्मिक आधार पर आरक्षण खत्म करने जैसे कदम उठाकर। दक्षिण भारत में AIADMK, BJD, TDP या JDS जैसे परंपरावादी दलों के साथ गठजोड़ भी इस रणनीति का हिस्सा हो सकता है। हालाँकि, अगर विपक्ष—खासकर कांग्रेस और क्षेत्रीय दल—लोकतांत्रिक नैरेटिव को मजबूत करते हैं, तो भाजपा की यह रणनीति कमजोर पड़ सकती है। अंतरराष्ट्रीय दबाव, जैसे G7 देशों, संयुक्त राष्ट्र, या बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से भारत की छवि पर सवाल उठना, भी भाजपा को अपनी कट्टर छवि बदलने के लिए मजबूर कर सकता है।
कांग्रेस के लिए संघ का कमजोर होना एक सुनहरा मौका हो सकता है। संघ के बिना भाजपा की “कैडर-बेस्ड” राजनीति कमजोर होगी, जिससे कांग्रेस को अपने सामाजिक गठबंधन को मजबूत करने का अवसर मिलेगा। मुसलमान, दलित, ओबीसी और उदार हिंदू वोटरों के बीच अपनी पकड़ बढ़ाने के साथ-साथ वह TMC, AAP, DMK, RJD, SP, NCP और शिवसेना (UBT) जैसे गैर-भाजपा दलों के साथ बेहतर तालमेल बना सकती है। लेकिन कांग्रेस की राह में उसकी अपनी कमजोरियाँ भी हैं। नेतृत्व संकट—खासकर राहुल गांधी की विश्वसनीयता—और संगठनात्मक ढांचे की कमजोरी इसे पीछे खींच सकती है। केवल “संविधान बचाओ” का नारा काफी नहीं होगा; कांग्रेस को एक ठोस आर्थिक और सामाजिक एजेंडा पेश करना होगा। अगर वह ऐसा कर पाती है, तो संघ की अनुपस्थिति में वह सबसे बड़ा लाभ उठाने वाली पार्टी बन सकती है।
वामपंथ और क्षेत्रीय ताकतों का उभार
वामपंथी दल— CPI, CPI(M), और CPI(ML) आदि संघ के कमजोर होने के सबसे बड़े समर्थक होंगे। संघ की कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति का कमजोर पड़ना वामपंथी विचारधारा के लिए जगह बना सकता है। बुद्धिजीवियों, छात्र आंदोलनों और श्रमिक संगठनों को नया मंच मिलेगा, और “संवैधानिक लोकतंत्र बनाम पूंजीवादी हिंदुत्व” की बहस में वामपंथ अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है। लेकिन वाम दलों का संगठनात्मक ढांचा बेहद कमजोर हो चुका है, और उनकी पहुँच शहरी पढ़े-लिखे तबके तक सीमित रह गई है। अगर वे कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल बिठाकर “लोकतांत्रिक वाम” के रूप में उभरते हैं और श्रमिक, किसान, और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उठाते हैं, तो वे एक नई ताकत बन सकते हैं।
क्षेत्रीय पार्टियां भी इस बदलाव से प्रभावित होंगी। SP, RJD, TMC, DMK, AAP, NCP और शिवसेना (UBT) जैसी पार्टियों को फायदा हो सकता है। उत्तर भारत में SP, RJD और AAP जातीय गठबंधनों को मजबूत कर सकती हैं, जबकि दक्षिण में DMK और TRS जैसी पार्टियाँ अपनी स्वतंत्रता को और बढ़ा सकती हैं। TMC और शिवसेना (UBT) कांग्रेस के करीब आकर भाजपा को रोकने में मदद कर सकती हैं। लेकिन इन पार्टियों को राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होना होगा, वरना भाजपा अपनी नई रणनीति से इन्हें अलग-थलग कर सकती है।
भारत की राजनीति का नया स्वरूप
संघ के कमजोर होने या खत्म होने से भारत की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर सकती है। भाजपा के पास दो रास्ते होंगे—या तो वह “राष्ट्रवाद और विकास” की राह अपनाएगी, या नए हिंदू संगठनों के सहारे कट्टरता को बनाए रखेगी। अगर कांग्रेस और वामपंथी एक मजबूत लोकतांत्रिक मोर्चा बनाते हैं और क्षेत्रीय दल उनका साथ देते हैं, तो वे भाजपा को कड़ी चुनौती दे सकते हैं। दूसरी ओर, अगर भाजपा हिंदुत्व को नए रूप में पेश करती है, तो हिंदू राष्ट्रवाद का एजेंडा आगे बढ़ सकता है। अंततः, संघ की अनुपस्थिति भारत में लोकतांत्रिक राजनीति को नई ताकत दे सकती है, बशर्ते विपक्ष संगठित हो और जनता के सामने एक स्पष्ट विकल्प पेश करे। यह न केवल संघ का अंतिम अध्याय होगा, बल्कि भारत के राजनीतिक भविष्य का एक नया शुरूआती पन्ना भी हो सकता है।