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FCRA: असहमति पर चोट के अपने एजेंडे पर लौटी मोदी सरकार

  • संदर्भ: शीर्ष वित्तीय एनजीओ का एफसीआरए (FCRA) रद्द

क्या कहना है सीएफए का
एफसीआरए पर सीएसओ की राय
सरकार का पक्ष
एनजीओ और आलोचकों का दृष्टिकोण
क्या है एफसीआरए
एफसीआरए के प्रमुख बिंदु
एफसीआरए खत्म करने के जाहिर कारण
भारत में एनजीओ की स्थिति
एनजीओ सेक्टर का आर्थिक आधार
फंडिंग के प्रमुख स्रोत
एनजीओ में कार्यबल
राज्यों में फंड वितरण
किन मुद्दों पर सबसे अधिक फंड
ग​लतियां एकतरफा नहीं हैं — एनजीओ की खामियां
और अंत में— भविष्य तो तय है

हालिया लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद कुछ सरकार विरोधी उत्साही समूहों को लगने लगा था कि मोदी 3.0 में बीते दो कार्यकाल जैसी धार नहीं होगी। साथ ही मोदी सरकार को एनडीए सरकार की मूल अवस्था में लौटने की भविष्यवाणियां भी की जाने लगी थीं। उनके लिए 13 जुलाई का दिन एक बड़े सेटबैक की तरह है। अंबानी परिवार की भव्य शादी पर बिखरे मीम से लेकर संविधान हत्या दिवस की शाब्दिक बाजीगरी के बीच आखिर मोदी सरकार ने अपने मूल एजेंडे का हल्का सा अंदाजा दे दिया है। भारत के 22 हजार करोड़ डॉलर यानी करीब 3 अरब रुपये के एनजीओ सेक्टर के खिलाफ अपनी चिरपरिचित शैली में गृह मंत्रालय ने सुप्रसिद्ध पैरवी समूह, सेंटर फॉर फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी (सीएफए) और सेंटर फॉर एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन (सीईसी) समेत कई संस्थाओं का विदेशी वित्त पोषण लाइसेंस (एफसीआरए) रद्द कर दिया है।

नियमों के उल्लंघन में कथित संलिप्तता

बताया गया है कि यह लाइसेंस एफसीआरए नियमों के उल्लंघन में कथित संलिप्तता के कारण रद्द किया गया है। एफसीआरए रद्द करने का फैसला इस साल 30 जून को केंद्र द्वारा जांच के बाद लिया गया। गृह मंत्रालय ने 29 जून को उन एनजीओ को तीन महीने का अतिरिक्त समय दिया था, जिनका एफसीआरए पंजीकरण 30 सितंबर, 2024 तक लंबित था। 8 जुलाई को सीईसी को भेजे गए ईमेल प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। हालांकि, एनजीओ के प्रतिनिधियों ने बताया कि लाइसेंस मनमाने आधार पर रद्द किया गया है और वे इस मामले को अधिकारियों के समक्ष उठाएंगे। गौरतलब है कि कई गैर सरकारी संगठन जिनके लाइसेंस अतीत में रद्द कर दिए गए थे, उन्होंने वित्तीय बाधाओं के कारण दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को पूरा करने में कठिनाईयां व्यक्त की हैं।

कई प्रमुख एनजीओ ने जांच के नवीनतम दौर में अपने एफसीआरए लाइसेंस खो दिए हैं जबकि आज तक एनजीओ को 195 नए एफसीआरए पंजीकरण लाइसेंस जारी किए गए हैं। इनमें बॉलीवुड सुपरस्टार शाहरुख खान का मीर फाउंडेशन और वेदांता समर्थित केयर्न फाउंडेशन भी शामिल हैं।

सेंटर फॉर एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन यानी सीईसी इंडिया की स्थापना 1982 में हुई थी और यह उन नीतियों पर शोध, अभियान और समर्थन की दिशा में काम करता है जो श्रमिकों, विशेष रूप से अनौपचारिक श्रमिकों और छोटे उत्पादकों के लिए सम्मानजनक और टिकाऊ आजीविका विकल्पों को बढ़ाते हैं। एनजीओ को एफसीआरए पंजीकरण पहली बार सितंबर 1986 में दिया गया था। इसे जर्मनी, एडिनबर्ग, यूरोपीय आयोग, बेल्जियम, लंदन, आदि से विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ। महामारी के दौरान एनजीओ ने वर्कर्स ढाबा अभियान चलाया, जिसके तहत दिल्ली-एनसीआर और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में कई मजदूर वर्ग के इलाकों में लॉकडाउन अवधि के दौरान हजारों श्रमिकों को भोजन कराया गया। यह भारत के ईंट भट्टों में हरित ईंटों पर एक परियोजना में भी शामिल था जिसे यूरोपीय संघ द्वारा वित्त पोषित किया गया था और इसे गंतव्य राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, त्रिपुरा और बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड के स्रोत राज्यों में लागू किया गया था।

वहीं सेंटर फॉर फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी यानी सीएफए मानवाधिकारों और पर्यावरण के दृष्टिकोण से भारत के वित्त और बैंकिंग क्षेत्रों की आलोचनात्मक जांच करने के लिए जाना जाता है। सीएफए ने विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के तहत अपना लाइसेंस खो दिया, जबकि सीएफए वेबसाइट पर इसके व्यापक रूप से सराहे जाने वाले कॉलम फाइनेंस मैटर्स (एफएम) के सात साल पूरे हो चुके हैं। हालांकि सीएफए ने यूट्यूब रोस्ट से प्रभावित होते हुए बयान दिया है, “हमें खुशी है कि सत्ता में कोई व्यक्ति हमारे साप्ताहिक समाचार पत्र पढ़ रहा है। हम उन्हें आश्वासन देते हैं कि हम भविष्य में भी उनके पढ़ने को समृद्ध करना जारी रखेंगे!”

आर्थिक नीतियों ने मचाई तबाही: सीएफए

सीएफए के अनुसार, “वित्त मंत्री के पिछले सात साल ऐसे शासन के साथ मेल खाते हैं, जिसकी आर्थिक नीतियों ने आम लोगों के लिए तबाही मचा दी है। नोटबंदी, गलत तरीके से लागू जीएसटी और एक लापरवाह लॉकडाउन ने अनौपचारिक क्षेत्र की रीढ़ तोड़ दी और बेरोजगारी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई। घटती आय और आसमान छूती मुद्रास्फीति ने गरीब लोगों की जेबों में छेद कर दिया और उनकी घरेलू बचत में से जो कुछ भी बचा था, वह भी खत्म हो गया।”

जाहिर है सीएफए ने अपने इरादे साफ करते हुए भविष्य के तौर तरीकों की आहट दी है। बयान में उन्होंने आगे कहा है कि, “जबकि हम वैश्विक भूख सूचकांक में नीचे गिर गए, सरकार की नीतियों ने देश के कई हिस्सों को अडानी और अंबानी को बेच दिया, और कॉरपोरेट्स को भारी कर छूट और राइट-ऑफ दिया जिससे उनकी जेबें भर गईं। जबकि यह सब पिछले दशक में हो रहा था, चुप रहना या दूसरी तरफ देखना कभी भी कोई विकल्प नहीं था। हम इस सरकार को जवाबदेह ठहराने में दूसरों के साथ शामिल हुए।”

सीएफए के अनुसार, “अपने साप्ताहिक संस्करणों के माध्यम से, फाइनेंस मैटर्स ने लगातार हमारे देश और दुनिया को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण वित्तीय मुद्दों पर सूचित टिप्पणी के लिए एक मंच प्रदान किया है। वैश्विक आर्थिक नीतियों के निहितार्थों का विश्लेषण करने से लेकर बैंकिंग विनियमन की जटिलताओं को उजागर करने तक, समाचार पत्र ने अपने पाठकों को मूल्यवान अंतर्दृष्टि और दृष्टिकोण से सशक्त बनाया है।”

विशेष रूप से अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ के पूर्व महासचिव और ग्लोबल लेबर यूनिवर्सिटी में संचालन समिति के सदस्य थॉमस फ्रेंको के साप्ताहिक स्तंभ, रैंडम रिफ्लेक्शंस का जिक्र करते हुए, बयान में कहा गया है कि “भारतीय बैंकिंग और अर्थव्यवस्था की अंतर्दृष्टि और विश्लेषण के लिए कई लोगों को इसका इंतजार रहता है। 2019 के अंत में शुरू किया गया यह स्तंभ लगातार प्रकाशित हो रहा है और कई मुख्यधारा के मीडिया द्वारा इसका पुनरुत्पादन किया जा रहा है।”

फाइनेंस मैटर्स को “नीति निर्माताओं, वित्तीय पेशेवरों, शिक्षाविदों और चिंतित नागरिकों के लिए सूचना का एक विश्वसनीय स्रोत” बताते हुए, सीएफए ने दावा किया कि इसने “वित्तीय संस्थानों के भीतर जिम्मेदार वित्तीय प्रथाओं और सामाजिक-आर्थिक, पर्यावरण और जलवायु जवाबदेही की वकालत करने और उसे बढ़ाने” में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

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जाहिर है एफसीआरए रद्द होने के बाद सीएफए वित्तीय संकट में आएगा ही और इसके लिए उसने पैरवी कार्य को जारी रखने के लिए जनता से दान की मांग की है। वक्तव्य में रेखांकित किया गया, “ऐसे समय में जब नागरिक समाज संगठनों (सीएसओ) पर सरकार का शिकंजा तेजी से बढ़ गया है, कार्यकर्ताओं पर झूठे मामले दर्ज किए जा रहे हैं और उन्हें अवैध रूप से जेल में डाला जा रहा है, असहमति और लोकतांत्रिक अधिकारों का गला घोंटा जा रहा है, सीएफए सत्ता के सामने सच बोलना जारी रखेगा।”

एक अलग बयान में, प्रतिष्ठित शिक्षाविदों, न्यायविदों, पूर्व प्रशासकों, ट्रेड यूनियनवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं वाले नागरिक संगठन, पीपुल्स कमीशन ऑन पब्लिक सेक्टर एंड सर्विसेज ने कहा कि लोक हितैषी एनजीओ के एफसीआरए पंजीकरण के नवीनीकरण से इनकार करना “दुर्भावनापूर्ण इरादे और प्रतिशोध की बू आती है।”

सीएफए के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए, “एक सहयोगी संगठन जिसके साथ आयोग ने पिछले कई वर्षों से निकटता से सहयोग किया है”, आयोग ने कहा, “नवीनतम कार्रवाई” इस बात की एक और पुष्टि है कि “मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में भी असहमति को खत्म करने के रास्ते पर चल रही है।”

आयोग ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि किस प्रकार मंत्रालय ने मामूली उल्लंघनों के लिए कई गैर सरकारी संगठनों के एफसीआरए पंजीकरण को निलंबित/रद्द कर दिया है, जबकि, आश्चर्यजनक रूप से, राजनीतिक दलों को विदेशी दान तक बेरोकटोक पहुंच की अनुमति दे दी है।

आयोग ने कहा कि वर्तमान सरकार ने किस प्रकार राजनीतिक दलों को विदेशी धन हासिल करने में आने वाली विधायी बाधाओं को दूर करने के लिए काम किया है, और कहा कि, “यह स्पष्ट रूप से असंगत है: राजनीतिक दलों के लिए विदेशी धन प्राप्त करने के लिए एक नियम है, जबकि जनहितैषी गैर सरकारी संगठनों को राज्य के दबाव का सामना करना पड़ता है।”

आयोग ने कहा, “सीएफए, एक नवोदित संस्था है, जिसने अपने 7 के छोटे से जीवन काल में ही अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है, जिससे शिक्षाविदों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों को विश्लेषणात्मक जानकारी प्राप्त हुई है, वह भी ऐसे समय में जब मुख्यधारा की मीडिया ने अपना दिल और आत्मा सत्ताधारियों को बेच दिया है।”

इसमें कहा गया है, “विशेष रूप से, विमुद्रीकरण से लेकर भारतीय कर व्यवस्था की असमानताओं तक के विशिष्ट मुद्दों पर इसके विस्तृत तथ्य पत्रक कई लोगों के लिए रहस्योद्घाटन करने वाले रहे हैं। इसने बड़े व्यवसायों के कुकृत्यों, विशेष रूप से सत्तारूढ़ शासन के साथ उनकी मिलीभगत पर प्रकाश डालकर एक महान सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति की है।”

सरकार का पक्ष

भारत सरकार का कहना है कि एफसीआरए लाइसेंस रद्द करने का निर्णय नियमों और कानूनों के पालन न करने की वजह से लिया गया है। सरकार का दावा है कि यह कदम केवल उन एनजीओ के खिलाफ उठाए जाते हैं जो विदेशी फंडिंग के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं या जिनकी गतिविधियां राष्ट्र-विरोधी मानी जाती हैं। हालांकि यह साफ नहीं किया गया है कि सरकार ने किन गतिविधियों को राष्ट्र विरोधी माना है।

एनजीओ और आलोचकों का दृष्टिकोण

कई एनजीओ और आलोचक यह आरोप लगाते हैं कि भाजपा सरकार विशेष रूप से उन संगठनों को निशाना बना रही है जो उसकी नीतियों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि सरकार एनजीओ की फंडिंग रोककर उन्हें कमजोर करने का प्रयास कर रही है ताकि वे सरकार की आलोचना न कर सकें।

जैसा कि सरकार कहती है, अगर कोई एनजीओ एफसीआरए नियमों का उल्लंघन करता है, तो उसका लाइसेंस रद्द किया जा सकता है। लेकिन इसके पीछे और भी कारण हैं।

  1. राजनीतिक उद्देश्य: आलोचकों का मानना है कि यह कदम राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित हो सकता है, जिससे सरकार के विरोधी संगठनों की आवाज को दबाया जा सके।
  2. सुरक्षा चिंताएं: सरकार का यह भी दावा है कि कुछ एनजीओ विदेशी फंड का उपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में कर रहे हैं, जिसे रोकने के लिए यह कदम उठाया गया है।

कुल मिलाकर CFA का एफसीआरए लाइसेंस रद्द करना एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें सरकार कितना भी नियम कानूनों का हवाला दे, लेकिन उसकी मंशा पर यह सवालिया निशान लगाता है।

क्या है एफसीआरए

एफसीआरए (Foreign Contribution Regulation Act) भारत में विदेशी योगदान के नियमन के लिए एक कानून है। यह 1976 में पारित हुआ था और 2010 में इसमें संशोधन किया गया था। एफसीआरए का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विदेशी फंडिंग का इस्तेमाल राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में न हो और यह राष्ट्रीय हितों के अनुरूप हो।

एफसीआरए के प्रमुख बिंदु

पंजीकरण की आवश्यकता: किसी भी एनजीओ को विदेशी फंड प्राप्त करने के लिए एफसीआरए के तहत पंजीकरण कराना अनिवार्य है।
नवीनीकरण: एफसीआरए पंजीकरण हर पांच साल में नवीनीकृत किया जाना चाहिए।
खाता संचालन: विदेशी फंड के लिए एनजीओ को एक विशेष बैंक खाता खोलना होगा।
ऑडिट और रिपोर्टिंग: सभी विदेशी फंड्स की जानकारी सरकार को देना अनिवार्य है, साथ ही उनके उपयोग की रिपोर्ट भी देनी होती है।
प्रतिबंध और निलंबन: अगर एनजीओ एफसीआरए नियमों का पालन नहीं करता है, तो उसका पंजीकरण निलंबित या रद्द किया जा सकता है।

सरकार का कहना है कि एफसीआरए का उद्देश्य पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है। सरकार के अनुसार, एफसीआरए के तहत पंजीकरण रद्द करने या निलंबित करने का कारण यह होता है कि संबंधित एनजीओ नियमों का पालन नहीं कर रहे होते हैं, या विदेशी फंड्स का दुरुपयोग कर रहे होते हैं।

एफसीआरए खत्म करने के जाहिर कारण

नियमों का उल्लंघन: कई एनजीओ पर आरोप है कि वे एफसीआरए नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं, जैसे कि समय पर रिपोर्ट न देना, फंड का गलत इस्तेमाल करना आदि।
राष्ट्र-विरोधी गतिविधियाँ: कुछ एनजीओ पर राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया जाता है।
आर्थिक अपराध: वित्तीय अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के मामलों में भी एनजीओ के एफसीआरए पंजीकरण रद्द किए जाते हैं।
पारदर्शिता की कमी: कई बार एनजीओ अपनी गतिविधियों और फंडिंग स्रोतों को स्पष्ट नहीं करते, जिससे उनके पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल उठते हैं।

इन सभी कारणों के बावजूद पंजीकरण रद्द करने के फैसले विवादास्पद हो सकते हैं और एनजीओ द्वारा उठाए गए मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत तो है ही। लेकिन सरकार इसे सुनने से ही इनकार करती है।

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भारत में एनजीओ की स्थिति

भारत में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का एक महत्वपूर्ण और व्यापक नेटवर्क है, जो सामाजिक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, ग्रामीण विकास, और पर्यावरण संरक्षण जैसे विभिन्न मुद्दों पर काम करता है। आगे हम भारत में एनजीओ सेक्टर के आर्थिक आधार, इसमें कार्यरत लोगों की संख्या, राज्यों में फंड वितरण, और प्रमुख मुद्दों पर फंड के उपयोग पर बात करेंगे।

एनजीओ सेक्टर का आर्थिक आधार

एनजीओ सेक्टर में विदेशी और घरेलू स्रोतों से बड़ी मात्रा में फंडिंग आती है। 2020-21 में, भारत में विदेशी योगदान (एफसीआरए) के तहत एनजीओ को लगभग ₹22,000 करोड़ (लगभग 3 अरब डॉलर) प्राप्त हुए। यह फंडिंग विभिन्न सामाजिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य, पर्यावरण और मानवाधिकार से जुड़े कार्यों में उपयोग की जाती है।

फंडिंग के प्रमुख स्रोत

भारत में एनजीओ को मुख्य तौर पर चार तरह से फंडिंग होती है।
1. विदेशी योगदान (एफसीआरए)
2. घरेलू दान
3. सरकारी अनुदान
4. कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) फंडिंग

एनजीओ में कार्यबल

भारत में लगभग 3 मिलियन (30 लाख) एनजीओ पंजीकृत हैं। इन एनजीओ में काम करने वाले लोगों की संख्या लाखों में है, जिसमें पूर्णकालिक और अंशकालिक कर्मचारी, स्वयंसेवक और अनुबंध कर्मचारी शामिल हैं। एनजीओ सेक्टर में कार्यरत लोगों की भूमिकाएं विविध होती हैं, जैसे:

1. प्रशासनिक कर्मचारी
2. फील्ड वर्कर्स
3. समूह कार्यकर्ता
4. शिक्षक और प्रशिक्षक
5. परियोजना प्रबंधक
6. वॉलेंटियर

राज्यों में फंड वितरण

फंड वितरण में विभिन्न राज्य प्रमुख भूमिका निभाते हैं। कुछ प्रमुख राज्य जहां सबसे अधिक फंड जाता है, वे हैं:

तमिलनाडु: तमिलनाडु सामाजिक विकास और शिक्षा के लिए प्रमुख फंड प्राप्त करता है। राज्य में कई एनजीओ ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए काम कर रहे हैं।

महाराष्ट्र: महाराष्ट्र स्वास्थ्य, शिक्षा, और महिला सशक्तिकरण परियोजनाओं के लिए महत्वपूर्ण फंडिंग प्राप्त करता है। मुंबई जैसे महानगरों में भी कई एनजीओ सक्रिय हैं।

कर्नाटक: कर्नाटक ग्रामीण विकास और स्वास्थ्य परियोजनाओं के लिए बड़ा फंड प्राप्त करता है। राज्य में आईटी और शहरी विकास के लिए भी फंडिंग होती है।

दिल्ली: राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के मुख्यालय होने के कारण यहां भी महत्वपूर्ण फंडिंग प्राप्त होती है। यहां के एनजीओ स्वास्थ्य, शिक्षा, और मानवाधिकार पर काम करते हैं।

आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश शिक्षा, ग्रामीण विकास, और कृषि परियोजनाओं के लिए फंडिंग प्राप्त करता है। राज्य में जल प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण पर भी ध्यान दिया जाता है।

इन मुद्दों पर सबसे अधिक फंड

शिक्षा: ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सबसे अधिक फंडिंग होती है। कई एनजीओ स्कूल निर्माण, शिक्षण सामग्री, और शिक्षक प्रशिक्षण पर काम करते हैं।

स्वास्थ्य: विशेष रूप से ग्रामीण और वंचित समुदायों में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए महत्वपूर्ण फंडिंग होती है। एनजीओ स्वास्थ्य शिविर, अस्पताल निर्माण, और स्वास्थ्य शिक्षा पर काम करते हैं।

महिला सशक्तिकरण: महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए फंडिंग होती है। एनजीओ महिलाओं के लिए स्वरोजगार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं पर काम करते हैं।

ग्रामीण विकास: कृषि, जल प्रबंधन, और अन्य ग्रामीण परियोजनाओं के लिए फंडिंग होती है। एनजीओ ग्रामीण समुदायों में बुनियादी सुविधाएं, कृषि तकनीक, और सूक्ष्म वित्त पर काम करते हैं।

पर्यावरण संरक्षण: वन संरक्षण, जल संरक्षण, और अन्य पर्यावरणीय परियोजनाओं के लिए फंडिंग होती है। एनजीओ पर्यावरण शिक्षा, वृक्षारोपण, और स्वच्छता अभियानों पर काम करते हैं।

मानवाधिकार और न्याय: मानवाधिकार संगठनों और न्याय से जुड़े मुद्दों के लिए भी फंडिंग होती है। एनजीओ मानवाधिकार संरक्षण, कानूनी सहायता, और सामाजिक न्याय पर काम करते हैं।

ग​लतियां एकतरफा नहीं हैं

सरकार अपने ढंग से एनजीओ को हांकना चाहती है, यह जगविदित है, लेकिन एनजीओ में भी सभी दूध के धुले नहीं है। असल में दिक्कत यह है कि कई एनजीओ में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है। फंडिंग के बेजा इस्तेमाल के भी कई उदाहरण हैं, लेकिन यहां यह भी साफ है कि जो एनजीओ सरकारी नीतियों की आलोचना करते हैं, वे जवाबदेही से काम करते हैं और सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ भी जब तब खड़े होते हैं।

जाहिर है, जिन एनजीओ में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है, वे सरकार से बचकर ही अपने काम करते हैं और चाहते हैं कि चुप्पी साधकर अपना हित साधा जा सके। लेकिन इसके बावजूद इन संस्थाओं की कारगुजारी का असर सारे सेक्टर पर पड़ना लाजिमी है।

सरकार की मांग रही है कि एनजीओ उसके साथ मिलकर सामाजिक विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में सहयोग करें। कई एनजीओ यह कर भी रहे हैं। सरकार को मुख्य दिक्कत उन एनजीओ से है, जो उसकी गलत ​नीतियों की आलोचना करते हैं या फिर सरकार विरोधी समूहों के साथ और सरकार के एजेंडे के बाहर काम करते हैं।

एनजीओ आज जिस हालत में पहुंचे है, उसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एनजीओ की सीधी पहुंच नहीं है और बीते 10—12 सालों में एनजीओ के खिलाफ बनाए गए वातावरण ने भी इन संस्थाओं की छवि को समाज के ​बीच नकारात्मक बनाया है। समय रहते एनजीओ ने इन मसलों को हल करने की कोशिश नहीं की और बचकर कार्य करने का रास्ता अपनाया, जिसके कारण आज हालात यह है कि ये संस्थाएं अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं।

और अंत में

आने वाले सालों में जब सरकार नीतिगत बदलाव करते हुए सरकारी कर्मचारियों की संख्या में कमी कर रही है, वैसे में सरकारी कामों को करने के लिए एनजीओ को सर्विस सेक्टर का ही एक हिस्सा बना लिया जाएगा। सरकार में आने वाले तीन से चार सालों में रिटायर होने वाले कर्मचारियों की बड़ी तादात प्रशासन से बाहर होगी और उसके स्थान पर विभिन्न समूहों, संस्थाओं, कंपनियों से आउटसोर्सिंग की जाएगी।
इन हालात में एनजीओ की भूमिका महज सरकार के कामों को आगे बढ़ाने और सोशल रिस्पांसबिलटी को पूरा करना ही रह जाएगा। वह भी सरकारी दायरे में। ऐसे में जाहिर है कि आने वाले सालों में सरकार एफसीआरए के साथ साथ घरेलू अनुदान पर भी शिकंजा कसेगी। इसलिए जिन एनजीओ को फिलहाल यह लग रहा है कि वे सरकारी मार से बचे रह पाएंगे, यह उनकी गलतफहमी से ज्यादा कुछ भी नहीं है। देर सबेर सभी एनजीओ को या तो सरकारी भाषा बोलनी होगी, या फिर उन्हें अपनी भूमिका को एक्टिविज्म की तरफ ले जाना होगा।