भाजपा की आंतरिक बहस: पार्टी की भविष्य की दिशा क्या होगी?
सचिन श्रीवास्तव
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के भीतर इस समय एक गहरी वैचारिक बहस चल रही है, जो इसके भविष्य की दिशा को तय कर सकती है। पार्टी में तीन प्रमुख विचारधाराएं या गुट उभरकर सामने आए हैं— कट्टर हिंदूवादी गुट, व्यावहारिक विकासवादी गुट, और संघ-नियंत्रित पारंपरिक गुट। ये तीनों गुट इस बात पर सहमत नहीं हैं कि भाजपा को आगे किस रास्ते पर ले जाना चाहिए। क्या पार्टी को हिंदुत्व को अपनी पहचान का आधार बनाना चाहिए, या विकास और वैश्विक ताकत बनने को प्राथमिकता देनी चाहिए? या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के पारंपरिक ढांचे के अधीन रहना चाहिए? यह बहस न केवल पार्टी के भीतर बल्कि देश की राजनीति पर भी गहरा असर डाल सकती है।
पहला गुट, जिसे कट्टर हिंदूवादी गुट कहा जा रहा है, इसमें योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह, साक्षी महाराज और कपिल मिश्रा जैसे नेता शामिल हैं। यह गुट मानता है कि भारत को खुले तौर पर “हिंदू राष्ट्र” घोषित करना चाहिए। ये नेता समान नागरिक संहिता (UCC), जनसंख्या नियंत्रण कानून और हिंदुत्व आधारित शिक्षा नीति लागू करने की वकालत करते हैं। हाल ही में योगी आदित्यनाथ ने एक सभा में कहा था कि “हिंदू राष्ट्र का सपना संविधान के दायरे में पूरा हो सकता है,” जिससे इस गुट की सोच और साफ हो गई। इनका मानना है कि भाजपा को पूरी तरह हिंदूवादी पार्टी बन जाना चाहिए, ताकि अल्पसंख्यक वोटों की राजनीति से छुटकारा मिले। साथ ही, ये विदेश नीति को भी हिंदुत्व के आधार पर ढालना चाहते हैं, जिसमें मुस्लिम देशों से दूरी और इस्राइल जैसे देशों से गहरे संबंध शामिल हैं।
हालांकि, इस सोच के अपने जोखिम हैं। अगर भारत इस दिशा में बढ़ता है, तो वैश्विक स्तर पर उसका अलगाव हो सकता है। खाड़ी देशों जैसे सऊदी अरब और यूएई से व्यापार और ऊर्जा संबंध प्रभावित हो सकते हैं, जो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं। पश्चिमी देशों, जैसे अमेरिका और यूरोप, में भारत की “लोकतांत्रिक” छवि को भी नुकसान पहुंच सकता है। इससे “वसुधैव कुटुंबकम्” (विश्व एक परिवार है) की सॉफ्ट पावर नीति कमजोर पड़ सकती है, और देश के भीतर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ने से लोकतांत्रिक संस्थाएं— जैसे न्यायपालिका और मीडिया— दबाव में आ सकती हैं।
व्यावहारिक विकासवादी गुट: वैश्विक शक्ति बनने की राह
दूसरा गुट, जिसे व्यावहारिक विकासवादी गुट कहा जाता है, इसमें नरेंद्र मोदी, अमित शाह, नितिन गडकरी, धर्मेंद्र प्रधान और अश्विनी वैष्णव और एक हद तक एस. जयशंकर (सिर्फ टूल की तरह) जैसे नेता शामिल हैं। यह गुट हिंदुत्व को राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल करने में विश्वास रखता है, लेकिन उसका असली जोर विकास और वैश्विक नेतृत्व पर है। 2024 में भारत ने G20 की अध्यक्षता के दौरान “विकास के लिए एकजुटता” का नारा दिया था, जो इस गुट की सोच को दर्शाता है। ये नेता आर्थिक सुधार, तकनीकी प्रगति (जैसे सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग), और बुनियादी ढांचे को प्राथमिकता देना चाहते हैं। इनकी विदेश नीति संतुलित है— अमेरिका, रूस, खाड़ी देशों और यूरोप के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने की कोशिश की जाती है।
इस गुट का मानना है कि धार्मिक कट्टरता को नियंत्रित करना जरूरी है, ताकि भारत की छवि एक “लोकतांत्रिक और प्रगतिशील” देश की बनी रहे। लेकिन इस रास्ते में भी चुनौतियां हैं। पार्टी के कट्टर हिंदूवादी कार्यकर्ता इस नीति को “हिंदुत्व से समझौता” मान सकते हैं, जिससे असंतोष बढ़ सकता है। साथ ही, संघ और भाजपा के बीच तनाव भी उभर सकता है, क्योंकि संघ विकास से ज्यादा अपनी विचारधारा को तरजीह देता है। कुछ नेता इसे “सॉफ्ट हिंदुत्व” कहकर आलोचना कर सकते हैं, जिससे पार्टी के भीतर दरार की आशंका है। फिर भी, अगर यह गुट मजबूत होता है, तो भारत की वैश्विक शक्ति बनने की संभावना बढ़ सकती है, और देश के भीतर संस्थाएं स्थिर रहते हुए अल्पसंख्यकों के प्रति थोड़ी उदारता भी दिखाई दे सकती है।
संघ-नियंत्रित पारंपरिक गुट: परंपरा और हिंदुत्व का मिश्रण
तीसरा गुट संघ-नियंत्रित पारंपरिक गुट है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), विश्व हिंदू परिषद (VHP), बजरंग दल और ABVP जैसे संगठनों से प्रभावित है। इसके प्रमुख चेहरे मोहन भागवत, दत्तात्रेय होसबाले, भैयाजी जोशी और सुनील बंसल हैं। यह गुट चाहता है कि भाजपा संघ के वैचारिक ढांचे के अनुसार चले, न कि किसी एक नेता—जैसे नरेंद्र मोदी—के इशारे पर। 2025 में RSS ने “स्वदेशी मॉडल” को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया, जो इस गुट की प्राथमिकताओं को दर्शाता है। ये लोग हिंदुत्व और विकास को संतुलित करना चाहते हैं, लेकिन संगठन को नेताओं से ऊपर रखते हैं। गौ रक्षा, स्वदेशी अर्थव्यवस्था और वैदिक शिक्षा जैसे परंपरागत मूल्यों को बढ़ावा देना इनका लक्ष्य है।
लेकिन इस दृष्टिकोण के भी जोखिम हैं। अगर संघ का दखल बढ़ता है, तो भाजपा की राजनीतिक स्वतंत्रता सीमित हो सकती है। स्वदेशी मॉडल आधुनिक आर्थिक सुधारों—जैसे विदेशी निवेश और वैश्वीकरण— के खिलाफ है, जिससे भारत का वैश्विक प्रतिस्पर्धीपन प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा, मोदी और संघ के बीच पहले से मौजूद तनाव—जो 2019 के बाद से देखा गया है— और गहरा सकता है, क्योंकि मोदी खुद को संघ से स्वतंत्र रखना पसंद करते हैं। अगर यह गुट हावी होता है, तो आर्थिक सुधार धीमे पड़ सकते हैं, और विदेश नीति में राष्ट्रवादी रुख बढ़ने से पश्चिमी देशों के साथ संबंध कमजोर हो सकते हैं।
संघ की भूमिका: वरदान या चुनौती?
संघ की भूमिका इस बहस में सबसे अहम है। एक तरफ, संघ ने राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया है। इसने भाजपा को ग्रासरूट कार्यकर्ता और संगठनात्मक ढांचा दिया, जिससे पार्टी मजबूत और अनुशासित बनी। लेकिन दूसरी तरफ, संघ की विचारधारा वैश्विक राजनीति में बाधा बन सकती है। इसका आर्थिक मॉडल पुराना माना जाता है, जो उदारीकरण और विदेशी निवेश के खिलाफ है। हिंदूवादी एजेंडा भारत की लोकतांत्रिक और बहुलवादी छवि को भी कमजोर कर सकता है। अगर संघ का प्रभाव बढ़ता है, तो भारत की अर्थव्यवस्था और कूटनीति पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। वहीं, अगर भाजपा संघ से थोड़ी स्वतंत्रता रखती है, तो उसकी वैश्विक शक्ति बढ़ने की संभावना है।
भाजपा किस राह पर चलेगी?
अंत में, भाजपा के सामने तीन रास्ते हैं। अगर योगी आदित्यनाथ जैसे कट्टर हिंदूवादी नेता हावी होते हैं, तो भारत “हिंदू राष्ट्र” की ओर बढ़ सकता है, लेकिन इससे वैश्विक स्तर पर उसकी स्थिति कमजोर होगी और देश में ध्रुवीकरण बढ़ेगा। दूसरी ओर, अगर नरेंद्र मोदी और गडकरी जैसे विकासवादी नेता दिशा तय करते हैं, तो भारत की अंतरराष्ट्रीय स्थिति मजबूत हो सकती है। संघ का प्रभाव इस समीकरण में निर्णायक होगा—अगर यह बढ़ता है, तो आर्थिक और कूटनीतिक नीतियाँ प्रभावित हो सकती हैं, लेकिन अगर भाजपा खुद को स्वतंत्र रखती है, तो उसकी लोकतांत्रिक छवि मजबूत होगी। 2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने इन गुटों के बीच तनाव को और उजागर किया है, क्योंकि कट्टरता और विकास के बीच संतुलन की मांग बढ़ रही है। भाजपा का अगला कदम न केवल उसकी बल्कि पूरे देश की दिशा तय करेगा।