निर्भया को मरणोत्तर न्याय या अमानवीय हिंसा का सम्मान?
निर्भया को मरणोत्तर न्याय या अमानवीय हिंसा का सम्मान?
अभी-अभी एक चैनल से फोन आया| किसी स्त्री की आवाज आयी…… “ मैडम, आपकी प्रतिक्रिया चाहिए, निर्भया के गुनेहगारों को फांसी दी जाने वाली है, उस पर!” मैंने कहा, मेरी राय अलग होगी, चलेगा ना? उसने कहा, कोई बात नहीं, जो भी हो…..! मैं कनेक्ट करती हूँ, यह कहने के बाद आवाज और कॉल बंद हुआ! मुझे पता चला, क्यों!
क्योंकि मैं फांसी की सजा का विरोध करती हूँ| आज सुबह-सुबह मैंने किसी चैनल की खबर सुनी…… फांसी की सजा का ‘बेहतरीन’ वर्णन था उसमें! चैनल पर संचालक तिहाड़ जेल की अंदर-बाहर की फिल्म बता रहे थे, वे उन चार कैदियों के फांसी का चलचित्र मानो खड़ा कर रहे थे| रसभरा वर्णन, कइयों के लिए मनोरंजन, कइयों की बदले की भावना को उभार, कइयों को देशभक्ती का अभिमान और कईयों को स्त्री सम्मान का नजारा तक महसूस होता होगा| उस चैनल का TRP जरूर बढ़ा होगा! मेरे आंख का आंसू नहीं ढल पाया! मानो मैं ही हूँ गुनेहगार – फांसी की सजा न रोक पाने की! मेरी कमजोरी है कहिये या मर्यादा, आज देशभर फ़ैली है, उस हर प्रकार की हिंसा के साथ-साथ, यह हिंसा भी रोक नहीं पाने की! मेरे जैसे अन्य कई होंगे …..
याद है, अमनेस्टी इंटरनेशनल के ऐलान पर शामिल हुए कई मान्यवर, फांसी की खिलाफत में, जिनमें थे, आज हमें छोड़कर चले गये हमारे प्यारे वरिष्ठ कुलदीप नय्यर जी निर्भया के वे चार गुनेहगार….. जिनमें एक दो चेहरे तो मासूम लगते हैं ही…… क्या इस समाज व्यवस्था के शिकार नहीं है? क्या उनके कृत्य की जिम्मेदारी हमारे इर्दगिर्द में बढ़ता जा रहा उपभोगवाद नहीं है? क्या बाजार में उनका जीवन भी एक व्यापार नहीं बन चूका है?
उन चारों की जिंदगी, बचपन से लेकर फांसी की सजातक कैसे बीती और किस-किस प्रभाव ने उन पर दबाव सा बनाया, जिंदगी की मंजिल तक तय की, इसकी कोई हकीकत मेरे सामने नहीं है लेकिन मानसशास्त्र ही नहीं, समाजशास्त्र के अध्ययनकर्ताओं ने भी इस पर ध्यान देना क्या जरूरी नहीं है? आज के इन्सान और इन्सान के बीच बदलते रिश्तों ने हमें भोग–उपभोग का रास्ता ही दिखाना जब चाहा है, तब हम किसे ठहराएंगे दोषी? उन चारों को बलि देने देने तक भी और कितने बंदे तैयार हो रहे हैं, हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक करतूतों के चलते, इस पर सोच क्या जरूरी और संभव नहीं है?
कोई कहेगा, ‘इतनी व्यापक बाते बहुत दूर की खान छानने वाली है| यहाँ तो समाज की मांग है, कड़ी सजा की! जिन्होंने दुष्कर्म किया, उन्हें अगर यह सजा नहीं देंगे तो बढ़ते जाएंगे ये कुकर्म!’ लेकिन क्या फांसी की सजा से रुक रहे हैं बलात्कार? क्या थम रहा है, महिलाओं पर अत्याचार का सिलसिला? क्या देश और दुनिया में हिंसा कम हो रही है या बढ़ रही है? फांसी की सजा का मजा लेने वाले कौनसा संदेश दे रहे हैं? अहिंसा का? हिंसा की खिलाफत हिंसा से करना चाहने वाले, उसे सराहने वाले निश्चित ही फांसी की सजा के बिना और कुछ सोच ही नहीं सकते!
लेकिन उन्हें अगर इतनी सी बात नहीं समझ में आती कि किसी भी नशा में, किसी भी अमानवीयता की शिकार बनकर उन चारों ने निर्भया के साथ, अन्य चारों ने प्रियंका के साथ…… जो हिंसक व्यवहार किया; उसे रोकने के नाम पर समाज और शासन अगर वही व्यवहार, सोच समझकर, शुद्धीपर होते हुए, किसी भी नशा के या अंदरुनी उद्भाव के बिना, अपनाता है, तो दोनों के बीच फर्क कितना और साम्य कितना, यह भी क्या सोच नहीं पाते? हिंसा से ही बदला लो कि भावना, जाति और धर्म के आधार पर बहके इन्सानों से जब-जब हुई तब-तब उसका आधार ही गलत होना जिन्हें समझ में आता है, उन्हें भी स्त्री अत्याचार के मुद्दे पर शायद फांसी एक अपराध नहीं, अपरिहार्य जवाब लगता है! यह कैसे?
मनुष्यवध ही तो है फांसी! उसके पहले आप उन चारों को सजा पढ़ाने वाले, उन्हें जेल के बाहर टहलने के लिए ले जाने वाले, नाश्ता–खाना खिलाने वाले और चाप ओढने वाले क्या उन जीते जागते इन्सानों को मौत दिलाने में जरा भी दिल में दर्द महसूस नहीं करते? वे अपनी नौकरी के गुलाम हो तो हम क्या है? मनुष्य की सूडबुद्धि के गुलाम? हमारे अंदर छीपे पशुत्व नहीं, हिंसकत्व के शिकार? निर्भया तो चली गयी ….. प्रियंका भी!
लेकिन इन्हें हमसे छीन लेने वालो के और उन दोनों के परिवारजन जीवित है| उन्होंने भी सोचना है तो किस दिशा में? न्यायाधीश ही, हिंसा का फास जिंदगी भर महसूस करेंगे ऐसे नजदीकी रिश्तेदारों ने ही सोचना चाहिए! इन्सानों से अपेक्षा है तो माफी की ….. जिसमें अहिंसा की ताकत है और संदेश भी! राजीव गांधी की हत्या के बाद गांधी परिवार ने नलिनी के संबंध में जो मानवीय व्यवहार अपनाया वह माफी का ही था! दुनिया के करीबन 146 देशों में अब न्यायपालिका ने फांसी की सजा सुनाना बंद किया है……नमें से अधिकांश देशों में क़ानून में से ही इस अमानवीय सजा को हटा दिया है| आजीवन, सश्रम कारावास के आगे नहीं जाता है न्याय!
लेकिन हमारे यहाँ न्यायाधीश भी समाज में रोष या फांसी का आग्रह जैसे कारण देकर सुनाते है फांसी! लेकिन कभी नहीं भी सुनाते है, जैसे उनाव की केस में| जिसमें उस पीड़िता के कई परिवारजनों को भी अपराधी ने एक न एक प्रकार से निपटा, बर्बरता की हद दिखा दी, उस अपराधी को न हि एन्काउन्टर में, न हि फांसी से जवाब दिया गया| उसे मात्र 10 साल की सजा सुनायी, उसी न्यायपालिका ने, कानून समक्ष सब समान का सिध्दांत भी नजरअंदाज करते हुए| इन पूरी घटनाओं में, गैरकानूनी एन्काउन्टर हो या फांसी की हंटर राजनीति ही आजकल अधिक झलक रही है| अपनी प्रतिष्ठा, गर्विष्ठिता, दिखाऊ समाजनिष्ठा और सत्ताधीशता को बढ़ावा देने के लिए फांसी का निर्णय और उसका चर्वण इस्तेमाल किया जा रहा है|
इस सजा नहीं, हत्या के शस्त्र को अपनाते हुए जातिवाद भी झलक रहा है; जब गरीब, दलित अपराधियों के साथ अधिक झटपट, अधिक बर्बर, अधिक प्रचारक व्यवहार होता है| जो समाज, समुदाय या व्यक्ति इसे नहीं समझते है, वे मॉबलिंचिंग के पीछे की अमानवीयता भी कैसे जांचेंगे? कैसे समझेंगे?
एक ओर अज्ञात कोरोनाव्हायरस की हिंसा, जो मानवजात पर आक्रमण मानकर सब कोई डर गये है, उन्हें कभी अधिक डरावनी महसूस होगी, मनुष्यवध वृत्ति नाम के व्हायरस की घुसपैठ? क्या हम स्वयं अपने भीतर झांककर इसे निकाल फेंकने की हिम्मत करेंगे? करेंगे हम फांसी की सजा को हमारे देश के कानून से हटकर जीने का अधिकार प्रदत्त करने वाले संविधान का सम्मान?
यह मेरे मन की बात आप तक पहुंचने तक दी जा चुकी होगी फांसी! चार और बलि दिये जा चुके होंगे…… पर समय अभी भी है, सोचने और प्रतिक्रिया देने का…. न केवल किसी IT cell से, न किसी भरपूर कमाई चाहने वाले माध्यम से, बल्कि दिल और दिमाग से!
मेधा पाटकर