Farmers Protest: क्या अब किसानों के शाहीन बाग तैयार करना चाहती है केंद्र सरकार?
सचिन श्रीवास्तव
पंजाब—हरियाणा समेत देश के अन्य हिस्सों से दिल्ली की ओर बढ़ते किसानों (Farmers Protest) और रोकने की कवायद में सत्ता के बीच कश्मकश की तस्वीरें देखने के लिए हौसला और हिम्मत दोनों चाहिए। क्योंकि यह सब उस 26 नवंबर को हुआ है, जो देश में संविधान को याद करने का दिन है। इस दिन सत्ता के कानों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए निकले किसानों को रोकने (Farmers Protest) के लिए केंद्र सरकार ने जो बंदोबस्त किए, वह अभूतपूर्व हैं। 2014 के बाद “पहली बार” हुई कई किस्म की जायज—नाजायज घटनाओं में अब इसे भी शामिल कर लेना चाहिए कि
— पहली बार किसानों को रोकने (Farmers Protest) के लिए कंटीले तारों की बाड़ लगाई गई, जो आमतौर पर पाकिस्तान और बांग्लादेश से लगते भारतीय बार्डर पर दिखाई देती है।
— पहली बार ही दिल्ली में घुसने से पहले ही किसानों (Farmers Protest) पर पानी की तीखी बौछार की गई।
— पहली बार ही यह भी हुआ है कि किसानों के आंदोलन (Farmers Protest) को भ्रमित और सड़कों पर नारेबाजी करते अन्नदाताओं को भटका हुआ करार दिया गया।
— पहली बार यह भी हुआ है कि आंदोलनकारियों (Farmers Protest) को रोकने के लिए कांक्रीट की टनों वजनी बैरिकेडिंग की गई।
— पहली बार यह भी कि हुआ कि बैरिकैडिंग में कंटेनरों का इस्तेमाल किया गया और सड़क को खोदा भी गया।
यह सब “पहली बार” तब हुआ है जब देश के अन्नदाताओं का बड़ा तबका अपने उन चुने हुए नुमाइंदों से कुछ तीखे सवाल पूछने दिल्ली की ओर कूच कर रहा था, जो 2022 में किसानों की आय दोगुनी करने का वायदा 6 साल से हवा में उछाले हुए हैं। जाहिर है सवालों से आंख चुराने वाली सरकार खुद के बचाव के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है, और उसे जायज ठहराने के लिए उसके पास (कु) तर्कों की भी कमी नहीं है।
अब सवाल ये उठता है कि इससे हासिल क्या होगा? और आगे आने वाले दिनों की तस्वीर कैसी होगी? इन सवालों के जवाब के लिए करीब एक साल पीछे जाना जरूरी है। बीते साल सितंबर के शुरुआती सप्ताह में CAA NRC को लेकर चर्चाओं का जो दौर शुरू हुआ था, वह अक्टूबर में परवान चढ़ा और नवंबर अंत तक आते आते मुखर विरोध में तब्दील हो गया था। फिर वह दिसंबर आया जिसके मध्य में जामिया के प्रदर्शन पर हुए सत्ता के हमले ने चर्चित “शाहीन बाग” की पटकथा लिखी। इसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास का हिस्सा बन चुका है। दिसंबर, जनवरी और फरवरी में देश के विभिन्न “शाहीन बागों” से केंद्र सरकार के खिलाफ नारे गूंज रहे थे। उस वक्त सरकार और सरकार समर्थकों ने इन आंदोलनकारियों को जिन शब्दों से नवाजा था, अगर उन्हें याद करेंगे तो हाल ही में किसान आंदोलन (Farmers Protest) पर लगाए जा रहे आरोपों में एक रोचक साम्य मिलेगा। देशद्रोही, भटके हुए, विपक्ष के उकसावे, प्रायोजित आदि शब्दावली के साथ सवालों को किनारे करने वाली सत्ता के सामने संकट यह है कि इस बार उसके खिलाफ सड़कों पर किसान हैं, जबकि पिछली बार देश का मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय अग्रिम मोर्चे पर था। यानी इस बार जो वर्ग उसके सामने जवाब मांगने के लिए खड़ा है, उसे कपड़ों से पहचानने की गलती नहीं की जा सकती है।
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तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार एक बार फिर “शाहीन बागों” का विरोध झेलने को तैयार है? या वह खुद ही किसानों (Farmers Protest) को “शाहीन बाग” बनाने के लिए मजबूर कर रही है? और क्या किसान खुद इस तरह के लंबे और शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए तैयार हैं? साथ ही ये सवाल भी मौजूं है कि अगर किसान अनिश्चितकाल के लिए आंदोलन (Farmers Protest) की रणनीति बनाते हैं तो क्या CAA NRC आंदोलन की तरह वामपंथी, समाजवादी, मध्यमार्गी धड़े के साथ छात्रों, युवाओं के अलावा अल्पसंख्यक, दलित और बीते साल की केंद्रीय शक्ति रहीं महिलाओं का सक्रिय सहयोग उन्हें हासिल होगा?
इन सवालों का जवाब ईमानदारी से तलाश किया जाए तो आने वाले साल की एक सच्ची तस्वीर देखने को मिल सकती है। असल में, किसान आंदोलन (Farmers Protest) फिलहाल जिस मोड़ पर खड़ा है, वहां से उसके सामने बहुत ज्यादा रास्ते बचे नहीं हैं। केंद्र सरकार के रुख को देखते हुए इतना तो साफ है कि दिल्ली के सत्ता के गलियारों में होने वाली किसी सार्थक बातचीत का रास्ता खुद सरकार ही रोक देना चाहती है। जहां एक शांतिपूर्ण समाधान तलाश किया जा सकता है, उस रास्ते को लगातार संकरा किया जा रहा है। किसानों की मांग पर अपने कॉरपोरेट एजेंडे से पीछे हटने को सरकार फिलहाल अपनी हार के तौर पर देख रही है, लेकिन आने वाले दिनों में सरकार के सुर ढीले होंगे इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
क्योंकि किसानों के करीब खड़े होकर जो आवाजें सुनाई दे रही हैं, वे बेहद साफ हैं। जो किसान हरियाणा—दिल्ली बार्डर पर पहुंचे हैं, उनके पास दो से तीन महीने का राशन है और इरादे बेहद साफ हैं। किसानों ने 26 नवंबर को करीब 5 बैरिकैडिंग पार की हैं, और आगे भी वे किसी भी तरह की बाधा पार करने की बात कर रहे हैं। आसपास के गांवों से भी उन्हें मदद मिल रही है। यानी लगभग ऐसे हालात हैं कि दिल्ली कोई किला है और किले के भीतर सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों तक पहुंचने के लिए किसानों को लंबी और तीखी लड़ाई लड़नी है।
दिल्ली की जो अभूतपूर्व किलेबंदी की गई है उसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आने वाले दिनों में दिल्ली खुद इस दर्द झेलेगी। बार्डर पर उपजे गतिरोध से दिल्ली में खाने—पीने के सामान की किल्लत होना स्वाभाविक है। देश के अन्य हिस्सों के उत्पादन से अपनी जीवनचर्या चलाने वाली दिल्ली के नागरिक इसे कब तक झेल पाएंगे और उनका गुस्सा कब केंद्र सरकार और किसानों (Farmers Protest) के बीच में से अपना पक्ष चुनने के लिए दिल्ली वासियों को बाध्य करेगा, इसका जवाब भी आने वाले दिनों की तस्वीर को साफ कर देगा।
किसान और केंद्र की इस खींचतान के एक सिरे पर 500 से ज्यादा किसान और अन्य अधिकार समर्थक संगठन हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी सीमित लेकिन सार्थक पकड़ रखते हैं। तो दूसरी ओर वह पूंजीवादी तंत्र है, जो अपने फायदे के लिए सरकार को किसी भी कीमत पर पीछे न हटने देने के लिए हरसंभव असंभव हद तक जाने के लिए बाध्य करेगा, क्योंकि असल में मौजूदा केंद्र सरकार की लगाम इसी वर्ग के हाथ में है।
जाहिर है कि ऊपरी तौर पर इस लड़ाई (Farmers Protest) में भले ही केंद्र और किसान आमने सामने दिख रहे हों लेकिन असल में इसके पीछे जो असली लड़ाई है वह देश की जमीन, हवा, पानी और संसाधनों से जुड़े आंदोलनों और देश की मिट्टी का एक एक हिस्सा अपने नाम लिखाने पर आमादा व्यावसायिक घरानों के अगुआ धन्ना सेठों के बीच ही है।
दिल्ली के बाहरी हिस्से पर जो लड़ाई (Farmers Protest) छिड़ी है, अगर वह आगे बढ़ती है तो साफ है कि केंद्र सरकार के लिए आने वाले दिन कतई राहत भरे नहीं हो सकते। क्योंकि बिहार, बंगाल से गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु, केरल से लेकर उत्तर प्रदेश, हिमाचल तक के जो संगठन किसान संघर्ष समन्वय समिति में शामिल हैं, वे अगर अपनी सीमित ताकत के साथ भी अपने अपने आधार क्षेत्र में आंदोलन के सिलसिलेवार कार्यक्रम को अंजाम देने लगे तो किसानों के “शाहीन बाग” दूर की परिघटना नहीं लगते। और तब केंद्र सरकार के समक्ष विकल्प सीमित होते जाएंगे। ठीक वैसे ही जैसे अभी किसानों और मेहनतकश जनता के पास अधिकार और रास्ते बहुत कम बचे हैं।