communal violence

Communal Violence: अराजकता बढ़ाते कानून और संरचनात्मक सांप्रदायिक हिंसा-2

इरफ़ान इंजिनियर एवं नेहा दाबाड़े

Communal Violence  in 2020: (….पिछले अंक से जारी)

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उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी धर्मान्तरण निषेध अध्यादेश निम्न कारणों से सवालों के घेरे में है:

अस्पष्ट परिभाषाएं जिनके चलते किसी को भी दोषी घोषित करना आसान
उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 “दुर्व्यपदेशन, बल, असम्यक असर, प्रपीड़न, प्रलोभन के प्रयोग या पद्धति द्वारा या किसी कपटपूर्ण साधन द्वारा या विवाह द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अन्यथा रूप में एक धर्म से दूसरे धर्म में संपरिवर्तित करने को प्रतिबंधित करता है.” वह यह भी कहता है कि “कोई व्यक्ति दुर्व्यपदेशन, बल, असम्यक असर, प्रपीड़न, प्रलोभन के प्रयोग या पद्धति द्वारा या किसी कपटपूर्ण साधन द्वारा या विवाह द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अन्यथा रूप में एक धर्म से दूसरे धर्म में संपरिवर्तित नहीं करेगा/करेगी या संपरिवर्तित करने का प्रयास नहीं करेगा/करेगी और न ही किसी ऐसे व्यक्ति को ऐसे धर्म संपरिवर्तन के लिए उत्प्रेरित करेगा/करेगी, विश्वास दिलाएगा/दिलाएगी या षडयंत्र करेगा/करेगी.”

इन सभी शब्दों की परिभाषाएं इतनी अस्पष्ट हैं कि उनका कोई भी अर्थ निकाला जा सकता है. दुर्व्यपदेशन, बल, असम्यक असर, प्रपीड़न, प्रलोभन आदि की कोई स्पष्ट परिभाषा इस कानून में नहीं दी गयी है और किसी भी व्यक्ति को इनका दोषी ठहराना बहुत आसान है. यह कानून निर्दोष दम्पत्तियों को परेशान करने का हथियार बन सकता है.

परिवार को आपत्ति करने का अधिकार
यह अध्यादेश मूलतः महिला-विरोधी है. भारतीय संविधान और कानून की निगाहों में महिलाओं और पुरुषों का दर्जा बराबर है और अदालतें कई मामलों में कह चुकीं हैं कि दो वयस्कों को उनकी मर्जी से एक दूसरे से विवाह करने या साथ रहने से रोका नहीं जा सकता. इसके बाद भी, यह अध्यादेश परिवार को विवाह पर आपत्ति करने का हक़ देता है. अध्यादेश के अनुसार, “कोई भी व्यथित व्यक्ति, उसके माता-पिता, भाई, बहिन या ऐसा कोई व्यक्ति, जो उससे रक्त, विवाह, दत्तक ग्रहण से संबंध‌ित हो, ऐसे धर्मपरिवर्तन के संबंध में एफआईआर दर्ज करा सकता है”.

इस तरह यह कानून महिला की इच्छा और अधिकार की उपेक्षा करते हुए, उसके विवाह के सम्बन्ध में निर्णय करने का अधिकार उसके रिश्तेदारों और परिवार को देता है. यह एक बहुत ही खतरनाक प्रावधान है, विशेषकर हमारे जैसे देश में जहाँ ‘ऑनर किलिंग’ और महिलाओं को उनकी जाति से बाहर या सगोत्र विवाह करने पर उनके ही परिवारजनों द्वारा मौत के घाट उतारे जाने की घटनाएं आम हैं. भारत में परिवार का वैसे भी अपने सदस्यों पर काफी नियंत्रण होता है. हमारे देश में परिवार की इज्ज़त को महिलाओं के शरीर से जोड़ा जाता है. यह अध्यादेश, धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों को हिन्दू महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने का अधिकार देता है. इस कानून के लागू होने के बाद, हिन्दू महिलाओं के अभिभावकों पर मुस्लिम पुरुषों के खिलाफ प्रकरण दर्ज करवाने का दबाव बनाने के कई उदाहरण सामने आए हैं. कई मामलों में हिन्दू महिलाओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध बयान दर्ज करवाने पर भी मजबूर किया गया है.

हिन्दुओं पर जबरन हिन्दू धर्म थोपना
यद्यपि सैद्धांतिक तौर पर यह कानून किसी भी धर्म में परिवर्तन का निषेध करता है परन्तु व्यावहारिक धरातल पर यह केवल हिन्दुओं को दूसरा धर्म अपनाने से रोकता है. इसके मूल में यह श्रेष्ठतावादी अवधारणा है कि हिन्दू धर्म सर्वश्रेष्ठ है और इसके मानने वालों द्वारा कोई अन्य धर्म अपनाया जाना अनुचित है जिसे रोका जाना चाहिए. अध्यादेश के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा धर्म अपनाता है जो उसके वर्तमान धर्म को उसके द्वारा अपनाये जाने से ठीक पहले उसका धर्म था, तो उसे धर्मपरिवर्तन नहीं माना जायेगा. इस प्रकार यह कानून ‘घरवापसी’ के दरवाजे खुले रखता है. इसके तहत ‘घरवापसी’ अपराध नहीं है. हिन्दुत्वादियों की यह मान्यता है कि भारत में रहने वाले अन्य सभी धर्मों के लोग पहले हिन्दू थे और इन्हें साम,दाम, दण्ड, भेद के ज़रिये अन्य धर्मों में दीक्षित किया गया है. इसलिए, उन्हें फिर से हिन्दू बनाया जाना चाहिए.

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यह अध्यादेश, संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन है जो देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है. अगर कोई वयस्क हिन्दू अपनी मर्ज़ी से कोई और धर्म अपनाना चाहता है तो आखिर उसे क्यों रोका जाना चाहिए? संविधान उसे ऐसा करने का पूरा हक़ देता है. हिन्दुओं को अपनी अंतःकरण की आवाज़ पर कोई भी दूसरा धर्म अपनाने का पूरा अधिकार है. अतः यह कानून हिन्दुओं पर हिन्दू धर्म थोपता है.

प्रमाणित करने की ज़िम्मेदारी
इस अध्यादेश का एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि यह साबित करने की ज़िम्मेदारी कि धर्मपरिवर्तन स्वेच्छिक है, आरोपी अथवा उस व्यक्ति की होगी जिसने कथित तौर पर धर्मपरिवर्तन करवाया है. यह प्रावधान विधिशास्त्र के मान्य सिद्धांतों के विपरीत है. स्वयं को निर्दोष साबित करने का उत्तरदायित्व आरोपी पर डालना अनुचित और अन्यायपूर्ण है. दोष साबित करने की ज़िम्मेदारी आरोप लगाने वाले व्यक्ति की होनी चाहिए न कि आरोपी की. इस प्रावधान के ज़रिये मुस्लिम युवकों को झूठे मामलों में फंसाना आसान हो जायेगा. इस प्रावधान के मायने यह है कि जब तक मुस्लिम युवक यह साबित नहीं कर देता कि विवाह के पूर्व या उसके पश्चात उसकी पत्नि के धर्मपरिवर्तन में उसकी कोई भूमिका नहीं है तब तक उसे जेल में ही रहना होगा.

कड़ी सजा
यह अध्यादेश धर्मपरिवर्तन को गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध घोषित करता है और इसके अंतर्गत, दोषसिद्ध व्यक्ति को 10 साल तक के कारावास की सजा दी जा सकेगी. इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले को कम से कम एक वर्ष जेल में काटने होंगे. इस अवधि को पांच साल तक बढ़ाया जा सकेगा और दोषी पर रुपये 15,000 तक का जुर्माना भी लगाया जा सकेगा. परन्तु अगर वह व्यक्ति, जिसका धर्मपरिवर्तन करवाया जा रहा है, अवयस्क अथवा महिला हो या अनुसूचित जाति या जनजाति का हो तो कारावास की अवधि को 10 साल तक बढ़ाया जा सकेगा और दोषी पर रुपये 10,000 का जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकेगा. अध्यादेश में सामूहिक धर्मपरिवर्तन करवाने के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान है. ऐसे मामलों में कम से कम तीन साल और अधिकतम 10 साल के कारावास के अलावा, रुपये 50,000 का जुर्माना भी हो सकता है.

अध्यादेश का कार्यान्वयन

इस अध्यादेश का उपयोग अल्पसंख्यक समुदायों और विशेषकर मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है. इस कानून का उद्देश्य केवल एक दिशा में धर्मपरिवर्तन को रोकना है – हिन्दू धर्म से अन्य धर्मों की ओर. इसका एक अन्य उद्देश्य है मुसलमानों का दानवीकरण, उनके बारे में हास्यास्पद मिथकों का प्रचार और उन्हें काल्पनिक साजिशें रचने का दोषी ठहराना. इस कानून के चलते अन्य धर्मों के लोग मुसलमानों से दोस्ती करने या उनके साथ रिश्ते जोड़ने से घबराने लगेंगे.

एक उदाहरण ही काफी होगा. सोनू उर्फ़ शाकिब, 18, अपनी पूर्व सहपाठी, 16 वर्षीय दलित लड़की के साथ घूमने गया. दोनों ने पिज़्ज़ा खाया और कोल्ड ड्रिंक पी. वे अपने घरों को वापस लौट पाते, उसके पहले ही शाकिब को उस लड़की को प्रेम का झांसा देकर उसका धर्मपरिवर्तन करवाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. लड़की के पिता, जिसने शाकिब के खिलाफ रपट दर्ज करवाई, का आरोप है कि पुलिस वालों ने उसे बताया कि उसे अपनी रपट में क्या लिखना है. “मैंने उनसे कहा कि मैं रिपोर्ट लिखवाना नहीं चाहता परन्तु पुलिसवाले मुझ पर हावी हो गए. उन्होंने कहा कि आगे चलकर मेरी लड़की शाकिब के साथ भाग जाएगी और इसलिए अपनी लड़की की खातिर मुझे रपट लिखवानी चाहिए. मैं इन सब चीज़ों के बारे में कुछ ख़ास जानता नहीं हूँ इसलिए मैं राजी हो गया,” उसने कहा.

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पिछले साल 28 नवम्बर को इस कानून के लागू होने के बाद से, उत्तरप्रदेश पुलिस ने इसके अंतर्गत 14 मामले दर्ज किये और 51 लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें से 49 जेल में हैं. इन 14 मामलों में से 13 में यह आरोप है कि हिन्दू महिलाओं पर मुसलमान बनने के लिए दबाव डाला गया. केवल दो मामलों में शिकायतकर्ता सम्बंधित महिला है. शेष 12 मामलों में, महिलाओं के परिवारजनों ने रपट दर्ज करवाई है.

इन आंकड़ों से साफ़ है कि इस कानून का घोर दुरुपयोग हो रहा है. कानून को लागू करने में भेदभाव भी किया जा रहा है. मुस्लिम पिताओं द्वारा दर्ज करवाई गयी रपटों के मामलों में हिन्दू पुरुषों पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी. इसके विपरीत, जिन मामलों में आरोपी मुसलमान पुरुष थे, उनमें उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. ऐसा उन मामलों में भी हुआ जब संबंधित महिलाओं के परिवारों ने यह साफ़ कहा कि उन्हें अंतर्धार्मिक विवाह से कोई आपत्ति नहीं है. ऐसे भी उदाहरण हैं जब शादियों को बीच में रोक कर गिरफ्तारियां कीं गईं. एक मामले में एक दंपत्ति को अपने अजन्मे बच्चे से हाथ धोना पड़ा क्योंकि बजरंग दल के कार्यकर्ताओं की शिकायत पर गर्भवती महिला को शेल्टर होम भेज दिया गया. लगभग सभी मामलों में इस बात के पर्याप्त सुबूत हैं कि हिन्दू संगठनों के सदस्यों ने हिन्दू महिलाओं के परिवारों को रपट लिखवाने के लिए भड़काया. इस अध्यादेश ने हिन्दू संगठनों और राज्य को एक राय होकर मुसलमानों को प्रताड़ित करने का लाइसेंस दे दिया है. मुसलमान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और उनकी स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिकों से भी बदतर हो गई है.

असम में सरकारें मदरसे बंद

एक विवादास्पद कदम में, असम विधानसभा ने एक विधेयक पारित कर राज्य सरकार द्वारा संचालित मदरसों को सरकारी स्कूलों में परिवर्तित कर दिया. इस विधेयक के जरिए दो अधिनियमों को रद्द कर दिया गया. वे हैं द असम मदरसा एजुकेशन (प्रोविंसशिएलाईज़ेशन) अधिनियम 1995 और द असम मदरसा एजुकेशन (प्रोविंसशिएलाईज़ेशन ऑफ़ सर्विसेज ऑफ़ एम्प्लाइज एंड री-आर्गेनाइजेशन ऑफ़ मदरसा एजुकेशनल इंस्टिट्यूशन्स) अधिनियम 2018. यह विधेयक तब पारित किया गया जब सभी विपक्षी सदस्यों ने इसे विचार के लिए सदन की स्थाई समिति को सौंपने की अपनी मांग अस्वीकार कर दिए जाने के विरोध में सदन से वहिर्गमन कर दिया था. अब असम में मदरसों की धार्मिक शिक्षा के केंद्र के रूप में मान्यता समाप्त हो गयी है. राज्य की भाजपा सरकार का तर्क है कि उसने यह कदम मुस्लिम समुदाय के ‘सशक्तिकरण’ के लिए उठाया है. इसका कहना है कि मदरसों को सरकारी स्कूलों में परिवर्तित करने से उनमें ‘आधुनिक’ शिक्षा दी जा सकेगी. सरकार का यह भी कहना है कि सरकारी पैसे से धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती.

इस मामले में यह मान कर चला जा रहा है कि मदरसों में केवल कुरान और अरबी भाषा पढ़ाई जाती है. तथ्य यह है कि उनमें कुरान के अलावा गणित और विज्ञान जैसे विषयों की शिक्षा भी दी जाती है. इस निर्णय से इस धारणा को बल मिला कि मदरसे पिछड़े हुए लोगों के अड्डे हैं जिनमें विद्यार्थियों को कट्टरता का पाठ पढाया जाता है. जाहिर है कि इससे पूरा मुस्लिम समुदाय बदनाम होता है.

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित)