Gandhi: हमारे दौर का ‘हिन्द स्वराज’

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की 153वीं जयन्ती (दो अक्टूबर) पर विशेष

गाँधी (Gandhi) की बात की जाए और ‘हिन्द स्वराज’ की बात न हो, यह मुमकिन नहीं। एक तरह से गांधी (Gandhi) विचार का सारतत्व उम्र के चालीसवें साल में लिखी उनकी इसी छोटी सी पुस्तिका में है, लेकिन क्या ‘हिन्द स्वराज’ आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं? क्या यह अस्सी पन्नों की असाधारण किताब हमें व्यक्ति, समाज और देश की हैसियतों से की गई अपनी चूकों की याद नहीं दिलाती? प्रस्तुत है, महात्मा गांधी (Gandhi) के 153 वें जन्मदिवस पर इसी विषय की पड़ताल करता लंबे समय तक मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग में वरिष्ठ पद पर रहे रघुराज सिंह का यह लेख।

बीसवीं सदी का हिन्दुस्तान कैसा होगा? इसका फैसला दो अक्टूबर 1869 को ही हो गया था। यह वह दिन था जब पोरबंदर के गाँधी खानदान में मोहनदास का जन्म हुआ था। नियति ने उसी दिन हिन्दुस्तान की बागडोर मोहनदास के खाते में लिख दी थी। उस मोहनदास के, जो अपनी किशोरावस्था तक दब्बू और डरपोक बना रहा।

इसी मोहनदास ने महात्मा होने और फकीरी बाना पहनने के बहुत पहले वर्ष 1909 में एक छोटी सी किताब ‘हिन्द स्वराज’ लिखी थी जो हिन्दुस्तान – खासकर आजाद हिन्दुस्तान और उसके नागरिक कैसे हों और उसे वे कैसा बनायें – यह बताती थी। यह किताब 113 साल बाद, आज 21वीं सदी में भी पूरी प्रासंगिकता के साथ मौजूद है। बहुतेरों ने इसे पढ़ा, उससे कम ने इसे गुना और इस पर चलने वाले तो और भी कम रहे।

’हिन्द स्वराज’ लिखते वक्त गांधी की उम्र महज चालीस साल थी। गाँधी ने यह किताब उन दस दिनों में लिखी थी जब वे लंदन से दक्षिण अफ्रीका का समुद्री सफर ’किल्डोनान कैसल’ जहाज से कर रहे थे। दस दिनों में लिखी यह किताब बहुतों के लिए आज भी ‘लाइट-हाउस’ है। इसी यात्रा में उन्होंने टालस्टाय के ‘ए लैटर टु ए हिन्दू’ का अनुवाद भी किया था।

जब से लिखी गई है तब से आज तक ‘हिन्द स्वराज’ की व्याख्या, पुनर्व्याख्या होती रही है। सभी दौरों में सत्ता ने या तो इससे दूरी बनाए रखी है या फिर दबी जुबान से इसे अव्यवहारिक बताती रही है। वैसे सत्ता का चरित्र होता ही ऐसा है जो ’हिन्द स्वराज’ को समझ नहीं सकता और यह बात गाँधी तब भी जानते थे।

बहरहाल, देश और दुनिया अब इतने आगे बढ़ चुकी है कि अस्सी सफों का यह दस्तावेज अब मात्र संकेतक रह गया है जो बताता है कि गुजरे सौ सालों में सभ्यता और विकास के क्रम में चूक कहाँ हुई है। ’हिन्द स्वराज’ कई मायनों में आफत का पुलिन्दा है। एक मित्र तो इसे वह लाल कपड़ा कहते हैं जिसे कुछ मनचले विचारक वक्त-वेवक्त साँड को दिखाते रहते हैं।

’हिन्द स्वराज’ लिखने का फार्मेट बिलकुल ही अलहदा है। किताब बातचीत की शैली में है। पाठक, उन सब विषयों पर जो सभ्यता और समय को परिभाषित करने के लिए अनिवार्य हैं, सवाल करता है और संपादक इसका जवाब देता है। पाठक और संपादक दोनों ही गाँधी खुद हैं। दिमाग का क्या ही अद्भुत बौद्धिक बटवारा है जिसमें दो खाने हैं और दोनों ही आपस में जूझ रहे हैं। गाँधी चाहे जितने अहिंसक और सरल हों, इस सवाल-जवाब में वे पूरी तरह से आक्रामक हैं और जबावों में तो उनकी अख्खड़ता छुपाये नहीं छुपती।

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किताब के पहले संस्करण की प्रस्तावना से उनके लोकतांत्रिक मिजाज को गहरे तक समझा जा सकता है। वे कहते हैं कि यह साबित करने की जरूरत नहीं कि जो विचार मैं पाठकों के सामने रखता हूँ, वे हिन्दुस्तान में जिन पर (पश्चिमी) सभ्यता की धुन सवार नहीं हुई है, ऐसे बहुतेरे हिन्दुस्तानियों के हैं, लेकिन यही विचार यूरोप के हजारों लोगों के भी हैं। अगर मेरे विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़कर रखने का मेरा आग्रह नहीं है।

गाँधी ने स्वराज को लेकर ‘हिन्द स्वराज’ में जो लिखा, वह हिन्दुस्तान की आजादी के 38 साल पहले लिखा था, लेकिन जरूरी बात यह है कि आजादी के बाद भी यह सही साबित हुआ। उनकी आशंका सही निकली और ज्यादातर अर्थों में देश आजादी के बाद ‘इंग्लिश्तान’ बना। हमने हर क्षेत्र में – चाहे वह विकास हो, शिक्षा हो या खेती-किसानी – विदेशी मॉडल ही अपनाये। गाँधी को आजादी के बाद होने वाली घटनाओं को लेकर जो शकाएँ थीं वे सब सच सिद्ध हुईं। गहरे और व्यापक अर्थों में ’हिन्द स्वराज’ एक ऐसा दस्तावेज है, जिसके निष्कर्ष आज सही सिद्ध हो रहे हैं।

ब्रिटेन की पार्लियामेन्ट के विषय में गाँधी की राय 19वीं सदी के आखिरी सालों और 20वीं सदी के पहले दशक में बनी थी। इसके बाद के सौ सालों में टेम्स में बहुत पानी बह गया है। पानी तो आजादी के बाद के 75 सालों में हिन्दुस्तान की नदियों में भी इतना बहा है कि कई एक नदियां सूख तक गई हैं।

बहने-सूखने के इस दौर में हिन्दुस्तान की पार्लियामेन्ट और राज्य की विधानसभाओं में क्या-क्या नहीं हुआ, इसे हम बखूबी जानते हैं। महात्मा होने के काफी पहले गाँधी ने ‘मदर ऑफ ऑल पार्लियामेन्ट’ (ब्रिटिश संसद) को जिन मापदण्डों पर परखा था, अगर उन पर हमारी संसदीय संस्थाओं, उनके लिए चुने गये सदस्यों को तौलें तो बापू की नाराजगी की कल्पना करना कठिन होगा। निश्चय ही वे पश्चाताप में आमरण अनशन जरूर करते, शायद अनशन तोड़ने की नौबत ही न आती। हो सकता है कि वे देश में घूम-घूमकर आह्वान करते कि नागरिक वोट देना ही बंद कर दें, वे चुनना ही बंद कर दें।

अपराधी संसदीय संस्थाओं के लिए शान से चुने जा रहे हैं, स्वेच्छा से बिना अपने ‘मालिकों’ से पूछे वे जब चाहें अपने वेतन बढ़ा लेते हैं, मोटर, लालबत्ती और हूटर की आवाजों से गरीब जनता को आतंकित करते हैं। जब चाहते हैं, पाला बदलने का खेल खेलने और दिखाने ‘सात सितारा’ होटलों में पहुँच जाते हैं। कानून बिना बहस-मुबाहिसों के जनता पर लागू कर देते हैं। नागरिकों की आवाज अनसुनी रह जाती है।

करीब दो साल पहले ‘कृषि कानूनों’ के खिलाफ शान्तिपूर्ण ‘किसान आन्दोलन’ और इसके कुछ पहले हुआ ‘शाहीन बाग’ आन्दोलन गाँधी की सत्याग्रह की कल्पना के अनुरूप हैं। ये दोनों आन्दोलन गांधी को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि हैं। किसानों को लेकर तो खुद गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा है कि किसान किसी के तलवार-बल के बस में न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते, लेकिन किसी की तलवार से ड़रते नहीं हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मौत का डर छोड़ दिया है, इसलिए सबका डर छोड़ दिया है। उनका यह सत्याग्रही स्वरूप आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नुस्खा बना रहेगा।

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‘हिन्द स्वराज’ में जिस सभ्यता की बात की गई है, सिर्फ गाँधी ही उसकी पैरवी कर सकते हैं। वक्त की तेज धार के सामने गाँधी ही दीवार बनकर प्रतिरोध कर सकते हैं। वे उस हिन्दुस्तान की बात करते हैं जिसमें मालिक होने जैसा कुछ है ही नहीं। जहाँ राजा पूरे तंत्र में शिखर से एक सीढ़ी नीचे है। जब नागरिकों ने सच्ची सभ्यता को परे धकेलकर सभ्यता का नया आधुनिक संस्करण अपनाया तो हिन्दुस्तान में अदालत, वकील, डाक्टर, किसान और ईश्वर सभी के मायने बदल गए। सबके सब नए तरीकों से परिभाषित हुए।

‘हिन्द स्वराज’ की सभ्यता तब तक थी जब तक बड़े शहर खड़े करने को झंझट माना जाता था। 75 साल में सभ्यता का पैमाना इस तरह बदला कि नीति निर्धारक अब देहातों के शहरीकरण के समयबद्ध लक्ष्य तय कर रहे हैं। गाँधी ‘हिन्द स्वराज’ में जिस ‘चांडाल सभ्यता’ का उल्लेख करते हैं, उसने पूरे समाज को बाजार में बदल दिया है। अब तो बाजार हमारी शिक्षा का केन्द्र बिन्दु है, यहाँ तक कि शिक्षा खुद एक बाजार है। अब अगर कोई नागरिक गाँधी की सभ्यता को उच्चारित करेगा तो लोग उसे ही ढ़ोंगी कहेंगे और हँसी उड़ायेंगे।

गाँधी ने जब ‘हिन्द स्वराज’ लिखी तब एक औसत हिन्दुस्तानी के जीवन में नीतियाँ,  ध्येय, नैतिकता,  स्वतंत्रता, अभिमान, शिक्षा, सुख-दुख, अमीरी-गरीबी, ज्ञान-अज्ञान,  फर्ज,  अनुभव,  शारीरिक श्रम आदि के कुछ दूसरे ही अर्थ थे। ये अर्थ आजादी के आते-आते और गाँधी के जाने तक बदल चुके थे। आज उनके द्वारा बताई सभ्यता से हम इतना आगे बढ़ चुके हैं कि लौटना संभव नहीं है। यंत्र अर्थात् मशीन पर समाज की निर्भरता जितनी व्यापक है, उससे मालिक बहुत कम और गुलाम बहुत ज्यादा हो रहे हैं। यंत्र ने लुहार, बढई, मोची, बुनकर और शिल्पी का रोजगार छीन लिया है।

ये आधुनिक मशीनें ही हैं जो युद्ध का बाजार निर्मित करती हैं और फिर युद्ध में हजारों-लाखों लोगों की हत्या करती हैं। यंत्रीकरण की अंतिम परिणति ‘आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस’ है जो आदमी के दिमाग को भी मशीन में ढ़ाल देगी, लेकिन क्या मशीन करूणा और दया भी पैदा कर पाएंगी? मशीनें आज गरीब-अमीर की खाई बढ़ा रही हैं। वैज्ञानिकों का सोच है कि दुनिया का अंत नजदीक है, क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों का हमने मशीनों से दोहन कर लिया है और अब जीवन के लिए जरूरी संसाधन प्रकृति में शेष नहीं रहे हैं।

‘हिन्द स्वराज’ पर बहुत कुछ लिखा गया है और पूरा देश गाँधी के होने के डेढ़ शतक मना चुका है। उनकी तस्वीर हर पुलिस थाने में है और करेंसी नोट पर भी। गाँधी स्कूल में हैं, पंचायत में हैं, गाँधी सत्ता और विपक्ष दोनों के प्रिय हैं। दो अक्टूबर के दिन देश गाँधीमय हो जाता है। हर जगह नए समय के ‘महापुरूष,’ गाँधी को भाषणों में समेट रहे हैं। बस एक बात है, देश में कोई गाँधी के कहे को नहीं मान रहा, कोई ‘हिन्द स्वराज’ में बताए रास्ते पर नहीं चल रहा।

साभार सप्रेस