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IPTA: मध्य प्रदेश—छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आंदोलन और इप्टा की भूमिका

(IPTA: जनता के रंगमंच की नायक जनता स्वयं होती है थीम पर संविधान लाइव ने पिछले दिनों प्रसिद्ध रंगकर्मी, लेखक और रंगकर्म पत्रिका की संपादक उषा वैरागकर आठले, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी और इप्टानामा के संपादक हिमांशु राय और कवि, संस्कृतिकर्मी और मध्य प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया से बातचीत की। इस बातचीत को मॉडरेट किया था दिल्ली इप्टा के सचिव और कवि मनीष श्रीवास्तव ने। करीब डेढ़ घंटे की इस बातचीत में इप्टा के पुनर्गठन से लेकर मौजूदा परिदृश्य तक पर कई घटनाओं, तथ्यों और संदर्भों पर चर्चा हुई। इस दस्तावेजी बातचीत को संविधान लाइव की साथी युवा पत्रकार मलाइका इमाम और उपन्यासकार और पत्रकार कुमार रहमान ने शब्दों में दर्ज किया है। – संविधान लाइव)

‘लेखक और कलाकार आओ,
अभिनेता और नाट्य लेखक आओ,
हाथ से और दिमाग से काम करने वाले आओ
और स्वयं को आजादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो”

यह ऐतिहासिक पंक्तियां 25 मई 1943 की हैं। इस दिन भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना के मौके पर अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने ऐसा ही आह्वान किया था। इसके साथ ही मुंबई के मारवाड़ी हाल में इप्टा के रूप में पूरे हिन्दुस्तान में प्रदर्शनकारी कलाओं की परिवर्तनकारी शक्ति को पहचानने की पहली संगठित कोशिश की शुरुआत हुई। ललित कलाएं, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्य रूप, इनके कर्ता, राजनेता और बुद्धिजीवी एक जगह इकठ्ठे हुए। इन कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का नारा था- “पीपल्स थियेटर स्टार्स द पीपल” यानी जनता के रंगमंच की नायक जनता स्वयं होती है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इप्टा की नाट्य परंपरा की जड़ें बेहद गहरी रही हैं। बीच में सक्रियता कुछ कम हुई और 1985 के आसपास फिर एक बार एकजुट हुए और बेहतर काम शुरू हुआ। आज जब संस्कृतिकर्म और संस्कृतिकर्मियों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं और कलाओं को सरकारी चाकरी का औजार बनाया जा रहा है, ऐसे वक्त में इप्टा की विरासत को जानना, समझना और इस पर बातचीत करना जरूरी लगता है। इसी कड़ी में संविधान लाइव ने 13 जून 2021 को शाम ‘मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक आंदोलन और इप्टा की भूमिका’ विषय पर फेसबुक पेज पर लाइव बातचीत की।

इस परिचर्चा में प्रसिद्ध रंगकर्मी, लेखक और रंगकर्म पत्रिका की संपादक उषा वैरागकर आठले, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी और इप्टानामा के संपादक हिमांशु राय, कवि, संस्कृतिकर्मी और मध्य प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया और दिल्ली इप्टा के सचिव और कवि मनीष श्रीवास्तव शामिल हुए। इस आयोजन का संचालन संविधान लाइव के संपादक और एक्टिविस्ट सचिन श्रीवास्तव ने किया। इस दौरान दिल्ली इप्टा के सचिव और कवि मनीष श्रीवास्तव ने बातचीत के दौरान कई सवाल किए और उन पर विस्तार से चर्चा की।

इससे पहले सचिन श्रीवास्तव ने संविधान लाइव के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि संविधान लाइव एक डॉकूमेंटेशन प्रॉसेस है। बीते करीब डेढ़ साल में इससे देश के युवा, पत्रकार, शिक्षक, कवि, रंगकर्मी, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ ही आईटी क्षेत्र के लोग जुड़ते रहे हैं। अपने समय को, विभिन्न माध्यमों के जरिए जैसे फोटो और वीडियो डाकूमेंटेशन, रिपोर्ट्स, संस्मरण, रिपोर्ताज के जरिए दर्ज करने की कोशिश की जा रही है। अपने समय के जन आंदोलनों के दस्तावेजीकरण के जरिए जमीनी और जनता के व्यापक सवालों को केंद्र में लाने की भी कोशिश की जा रही है। उन्होंने बताया कि ग्राउंड रिपोर्टर्स की एक टीम भी खड़ी की जा रही है।

मनीष श्रीवास्तव ने संविधान लाइव के काम की सराहना करते हुए कहा कि आप लोग जो काम कर रहे हैं, वह आसान काम नहीं है। बिना संसाधनों के जिस तरह से सिर्फ इच्छा शक्ति और अवाम के सहयोग से चुनौती स्वीकार की है और जो साहस दिखाया है वह प्रेरणादायक है।

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बातचीत के दौरान प्रसिद्ध रंगकर्मी, लेखक और रंगकर्म पत्रिका की संपादक उषा वैरागकर आठले से जब पूछा गया कि आपने दो अलग दौर में इप्टा को देखा। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पहले एक ही राज्य हुआ करते थे और बाद में जब अलग हुए तो छत्तीसगढ़ को एक अलग राज्य इकाई के रूप में प्रस्तुत करने का मौका मिला। ऐसे में इन दोनों स्थितियों में इप्टा के विचार विमर्श में क्या फर्क आया? इस पर उन्होंने कहा, छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने के बाद इप्टा में बहुत ज्यादा फर्क नजर नहीं आया। हालांकि, पूरे देश में ही परिस्थितियों में जो फर्क आया, उसके कारण इप्टा की सभी राज्य इकाईयों में फर्क आया होगा। हालांकि, आगे उन्होंने जोड़ा कि पहले मध्य प्रदेश के तौर पर हमारे संगठन का दायरा ज्यादा बड़ा था और छत्तीसगढ़ बनने के बाद सीमाओं का दायरा थोड़ा छोटा हो गया।

उषा वैरागकर आठले ने आगे कहा, जब हम मध्य प्रदेश इप्टा से जुड़े थे, उस समय 1981-82 में मध्य प्रदेश में इप्टा की बहुत सी इकाईयां प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से अलग-अलग जगह सक्रिय होने लगी थीं। प्रगतिशील संघ के ही साथियों ने जो अपने बीच के लेखक रहे और जो नए रंगकर्मी जुड़ना चाहते हैं, ऐसे लोगों को इकट्ठा कर अलग-अलग जगह इकाईयां शुरू होने लगीं। 1982 में मध्य प्रदेश का पहला राज्य सम्मेलन रायगढ़ में संपन्न हुआ था। आगे चल कर राष्ट्रीय स्तर पर 1985 से पूर्ण गठन होकर मामला आगे बढ़ा। करीब 15 सालों का दौर ऐसा रहा जब प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा साथ-साथ काम करते रहे। इस दौरान वैचारिक आदान-प्रदान भी भरपूर होता रहा। हालांकि, 1990 के बाद परिस्थियां बदल गईं। बाबरी मस्जिद का विध्वंस के साथ देश में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिसके बाद मुझे ऐसा लगता है जो साथी सभी दिशाओं में जागरूक थे उनके मन में थोड़ा संशय या एक नई राह अपनाने को लेकर मन:स्थिति बन रही थी।

वहीं, उषा वैरागकर आठले से जब पूछा गया कि संस्कृति का राजनीतिक और आर्थिक घटनाओं से क्या रिश्ता है? इस पर उन्होंने कहा, राजनीतिक परिघटनाएं कहीं ना कहीं सीधे जीवन पर और आसपास की परिस्थितियों पर असर डालती हैं। आपकी अभिव्यक्ति के तरीके क्या होने चाहिए इस पर भी असर डालती हैं।

उन्होंने आगे कहा, इप्टा का काम नाटक करना जनगीत करना तो है, पर इसके अलावा संस्कृतिकर्म और कलाकर्म की जो अन्य विधाएं हैं, उसमें भी जितनी ज्यादा सक्रियता हो सके, अलग-अलग कलाकारों के साथ हमारा संपर्क बढ़े, उससे हमारा आंदोलन बढ़ता है। साथ ही उसकी पहुंच बढ़ती है और वो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचता चला जाता है। 1990 से 1995 तक ये मिला जुला सांस्कृतिक कार्यक्रम था जो तमाम रंगकर्मियों के मिलने से बना था। उस समय तमाम तरह की सांस्कृतिक गतिविधियां परस्पर संपर्क में थीं, जिसके कारण सांस्कृतिक आंदोलन में फैलाव था। धीरे-धीरे ग्लोबलाइजेशन और रिबरलाइजेश आने से लगा कि दुनिया फैलेगी पर टुकड़ों-टुकड़ों में दुनिया बंटती जा रही थी। ऐसे में सांस्कृतिक संगठन भी अपने-अपने दायरों में सिकुड़ने लगे और आज भी ये स्थितियां हैं, इसलिए एप्टा और समान विचारों के जो संस्कृतिकर्मी हैं, उन्हें आज एकजुट होकर काम करने की जरूरत है।

इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कवि, संस्कृतिकर्मी और मध्य प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया ने कहा, इस समय रंगकर्मियों के सामने चुनौतियां हैं। 1990 के दशक की जो परिस्थितयां थीं, जिसमें हम देखते हैं कि व्यक्तिवादी और सांप्रदायिक मल्यों को एक नए सिरे से शक्ति प्रदान हुई जिनके विरोध में इप्टा जैसे संगठन मुहिम चला रहे थे। आज की तारीख में वे मूल्य बहुत शक्तिशाली हो चुके हैं।

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आज मध्य प्रदेश इप्टा के सामने कैसी चुनौतियां हैं? इस पर हरिओम राजोरिया ने कहा, ये समय बहुत ही चुनौतीपूर्ण है। ऐसे समय में जब इप्टा की इकाई किसी भी शहर में काम करती है और उसमें जो कलाकार काम करते हैं उनके लिए काम करना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि जब आप जरा सी बात से असहमति जाहिर करते हैं तो उसमें आपको देशद्रोही ठहरा दिया जाता है। आगे उन्होंने कहा, आज जो सत्ता का चरित्र है, उसमें अगर ऐसी कोई चुनौती देने वाली कविता भी लिखते हैं तो मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

उन्होंने आगे कहा, हाल में मध्य प्रदेश के छतरपुर में इप्टा के साथी नाट्स समारोह कर रहे थे, उसे रोक दिया गया। वहीं, ऐसे समय में जबलपुर में इप्टा के अलावा एक संगठन जो नाटक करते हैं उनके नाटक पर उंगली उठाई जाती है। उसमें हरिशंकर परसाई जी का नाटक रहता है। अब किसी तरह का सांस्कृतिक कार्यक्रम जो सत्ता के लिए थोड़ी बहुत भी चुनौती बनती है उसे करना बहुत ही मुश्किल हो गया है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश में इस तरह की चीजें सामने आई हैं कि काम करना मुश्किल हो गया है। इस समय की जो चुनौतियां हैं वो आजादी के बाद जितनी भी चुनौतियां आईं उन सब में अभी रंगकर्मियों के सामने बड़ी चुनौती है।

इप्टा के संविधान को लेकर वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी और इप्टानामा के संपादक हिमांशु राय से सवाल किए गए कि इप्टा का जब राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण गठन हुआ उस समय हैदराबाद कॉन्फ्रेंस में इप्टा का नया संविधान अपनाया गया। उसमें जो इप्टा के केंद्रीय मूल्य हैं वो वन टू वन हमारे संविधान की प्रस्तावना के साथ मिलते हैं। इस पर उन्होंने कहा, जिस समय ये पूर्णगठन की कार्रवाई चल रही थी, तो बार-बार दिल्ली में बैठकें हो रही थीं तो उसमें एक ही मुद्दा था कि संविधान का क्या होगा। इस पर कहा गया कि संविधान पहले से है तो इसका पैरा टू पैरा अध्ययन करके हैदराबाद में नए सिरे से ले लिया गया। जब घोषणा पत्र की समस्या आई तो उस समय सबसे आदर्श घोषणा पत्र मध्य प्रदेश इप्टा का मिला था, जिसे आंशिक रूप से सुधार कर इप्टा का घोषणा पत्र उस सम्मेलन का बनाया गया था। उस घोषणा पत्र को राजेश जोशी ने लिखा था।

मौजूदा संगठनों के बीच समन्वय के सवाल पर हिमांशु राय ने कहा, ये समय का फर्क है और जहां तक विचार की बात है तो जिस विचार में आप पहले से हैं उसमें तो बदलाव होना नहीं है। वहीं, उनसे एक सवाल पूछा गया कि इकाई पर एक व्यक्ति की निर्भरता संगठन की खामी नहीं मानी जाएगी। इस पर उन्होंने कहा, इतने साल के अनुभव से कहता हूं कि सैद्धांतिक रूप से यही कहते हैं व्यक्ति पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए, संगठन प्रमुख होना चाहिए। हालांकि, हर जगह आप ये देखेंगे कि एक न एक व्यक्ति की अच्छी सक्रियता के कारण वो इकाई बहुत अच्छे से काम करती है। यदि वो व्यक्ति नहीं रहता है तो कई बार वो आंदोलन ही बिल्कुल बैठ जाता है। इसलिए एक व्यक्ति की सक्रियता से बहुत ज्यादा फर्क पड़ता है, क्योंकि धीरे-धीरे उस पर सब चीजें निर्भर होती जाती हैं।

वैचारिक विचरण पर हिमांशु राय ने कहा, इस पर कोई सामान्य सिद्धांत या सामान्य निर्देश काम नहीं करता है, क्योंकि हरेक के साथ स्थितियां अलग होती हैं और काम करने का तरीका अलग होता है। साथ ही जिम्मेदारियां अलग होती हैं। ऐसे में वो व्यक्ति कितनी समझदारी से काम करता है इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है।