Abdul Haq: स्कूल और यार-दोस्तों के बिना जड़ हो रहे हैं बच्चे
निगहत
भोपाल के अब्दुल हक (Abdul Haq) की उम्र यही कोई 40 वर्ष होगी। वह जो ऐशबाग में बच्चों का स्टडी सर्कल संचालित करते हैं। मौजूदा हालात पर बच्चों को हो रही दिक्कतों को लेकर वह फिक्रमंद हैं। उन्हें लगता है कि देश की भावी पीढ़ी अगर मजबूत नहीं रही तो इसका नुकसान दूरगामी होगा। संविधान लाइव के लिए उनसे की बातचीत में कई अहम मसलों पर उन्होंने खुलकर बात की। पेश हैं बातचीत के अंश
अब्दुल हक कहते हैं कि मानसिक तौर पर बच्चों के साथ जो समस्याएं आ रही हैं, उन समस्याओं पर सरकार ने कोई भी काम नहीं किया। लॉकडाउन अचानक से ही लगा दिया गया था। जो चलते-फिरते बच्चे थे, वो घरों में कैद हो गए। इस दौरान बच्चों की शिक्षा पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। बच्चे स्कूलों से दूर होते चले गए और दोस्तों से भी नहीं मिल सके। धीरे-धीरे उनकी दोस्ती-यारी भी छुटती गई।
उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि पिछली बार लॉकडाउन की वजह से बच्चे तीन महीने से ज़्यादा बस्तियों में कैद रहे। अगर हम दो अलग-अलग जगहों की बात करें तो एक तो होती है बस्ती ओर दूसरी होती हैं कालोनी। दोनों में बहुत फर्क होता है। अगर कॉलोनी की बात करें तो फिर भी कॉलोनियों में खेलन-कूदने की जगह होती है और आसपास जाने के लिए भी रास्ते होते हैं। वहीं बस्तियों में न तो इतनी जगह होती है कि लोग टहलने के लिए निकल सकें और न खेलकूद के मैदान होते हैं। ऐसे में घरों से निकलने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और लोग उसमें कैद।
बच्चे एक साल से ज़्यादा हो गया है, न तो वो स्कूल गए हैं न दोस्तो के घर। न किसी रिश्तेदार के घर आना-जाना हो रहा है। ऐसे हालातों से बच्चों के मानसिक विकास पर फर्क पड़ा है। बच्चों की ऐसी स्थिति हो गई है कि, वो अब स्कूल के नाम से भी दूर भाग रहे हैं। वो स्कूल नही जाना चाहते हैं।
उन्होंने बताया कि पिछले लॉकडाउन में बच्चा रसोई शुरू हुई थी। बच्चों को पोषित आहार नहीं मिल रहा था। इसकी ज़रूरत महसूस की गई थी, तब बच्चों के लिए एका संस्था के माध्यम से बच्चों को पोषक आहार देने के लिए इसे शुरू किया गया था।
पिछला लॉकडाउन लगने के बाद एका सेंटर में इल्म स्टडी सर्कल जैसी सोच का विचार आया कि बच्चों की मानसिक स्थिति को थोड़ा बहुत ठीक करने के लिए इल्म स्टडी सर्कल शुरू किया जाए। इसमें वंचित समुदाय के बच्चे जुड़े और वो पढ़ने आने लगे। धीरे-धीरे चीज़ों को समझने और बनाने की प्रक्रिया में वह पहुंचे। तकरीबन आठ महीने इस प्रॉसेस में लगे। बच्चे खुद से चीज़ों को जानने और करने में यकीन करने लगे। इन 8 महीनों में स्थितियां बेहतर हुई भी नहीं थीं कि दबारा लॉडाउन लगाने से चीज़े और बिखर गईं। एक बार फिर बच्चों के साथ वो ही हालात फिर हुए कि उनको कमरों में उठाकर बंद कर दिया गया। ऐसे में वंचित समुदाय की आर्थिक स्थिति इतनी ठीक नहीं कि वो बच्चों की मानसिकता को समझ सकें। बच्चों से ठीक से बात करने वाला भी कोई नहीं है।
अब्दुल हक का कहना है कि बच्चों के लिए एक ऐसी जगह या मैदान हो जहां बच्चे थोड़ी देर ही सही पर खुद को आज़ाद महसूस कर सकें। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो उनकी कोशिश है कि वो बच्चों को कुछ स्पोर्ट्स का सामान उपलब्ध कराने की कोशिश करेंगे, ताकि बच्चे कम से कम थोड़ा वक्त खेल सकें।