सरकारी स्कूलों के बंद होने के मायने

(बाजारवाद के हल्‍ले में सरकारी अस्‍पतालों की तरह सरकारी स्‍कूलों को हम कितना भी कोस लें, लेकिन सबसे अधिक लोगों को स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा की सुविधा इन्‍हीं की मार्फत मिलती है। तो फिर इन्‍हीं को बेहतर क्‍यों नहीं किया जाए? खासकर तब, जब कोविड-19 की ‘मेहरबानी’ से करोडों प्रवासी मजदूरों ने हाल में ‘पलट-विस्‍थापन’ किया है। ऐसे में गांवों, कस्‍बों के सरकारी स्‍कूल करोडों बच्‍चों की शिक्षा के लिए उपयोगी होंगे। विडंबना यह है कि पास-पड़ोस के स्‍कूलों को ‘समेकन’ के नाम पर इकट्ठा किया जा रहा है, जिससे पहले ही बच्‍चों के अनुपात में कम होते स्‍कूलों पर गाज गिरेगी। प्रस्‍तुत है, इसी मुद्दे पर शिक्षा के क्षेत्र की जानी-मानी संस्था ‘एकलव्य’ के वरिष्ठ कार्यकर्ता मनोज निगम और टुलटुल बिस्‍वास का यह लेख।)

पिछले साल की गर्मियों में भोपाल से 40 किमी दूर ‘शासकीय प्राथमिक विद्यालय-हर्राखेड़ा’ के शिक्षक भूपेन्द्र शर्मा से मुलाकात के दौरान हिजाब पहने कुछ बच्चियां आती हैं। शिक्षक बहुत ही प्यार से कैरम और अन्य खिलौने उन्हें खेलने के लिए देते हैं। बच्चियों और शिक्षक का आपसी स्नेह बहुत कुछ कह रहा था। यह दृश्‍य और यह स्कूल कुछ मायनों में अलग-सा लगा। भूपेन्द्र शर्मा ने साथी शिक्षकों, पालकों, ग्रामवासियों और अधिकारियों का निरंतर सहयोग लिया, उनकी समस्याओं को समझा और विभाग की योजनाओं को सही तरह से कार्यान्वित किया। इन प्रयासों से तीन सालों में स्कूल में बच्चों की संख्या 24 से बढ़कर 150 से ऊपर पहुंची। अधिकांश बच्चे निजी स्कूलों से इस स्कूल में आए थे। गणवेश, बाल-केबिनेट, पहचान-पत्र, पेयजल की व्यवस्था, बगीचा, पुस्तकालय, स्मार्ट क्लास जैसी विभिन्न सुविधाओं से पालकों और ग्रामवासियों का स्कूल पर भरोसा बना। कभी कहा जाता था कि यह स्कूल बंद होने की कगार पर है पर अब बच्चों के आत्मविश्वास से भरे चेहरे इस स्कूल का रिपोर्ट-कार्ड हैं।

‘प्राथमिक शाला-खेडला’ होशंगाबाद ज़िला मुख्यालय से आठ किलोमीटर दूर है। यहां दो शिक्षिकाएं पदस्थ हैं – सुश्री कला मीणा और सुश्री प्रज्ञा शर्मा। दोनों शिक्षिकाएं बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ पालकों के साथ शिक्षा पर संवाद करने में अपनी भूमिका निभाती रही हैं। स्कूल में बच्चों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए सभी तरह के ज़रूरी साज़ों—सामान जुटाने में भी वे अग्रणी रही हैं जिससे यहां हर बच्चे के लिए मेज़-कुर्सी का प्रबन्ध है। खास बात यह कि उतनी ही शिद्दत से राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान से सज्जित सुश्री कला मीणा ‘संज्ञानात्मक चित्रांकन पद्धति’ से प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षण प्रक्रिया को भी रोचक और सार्थक बना रही हैं।

इन शिक्षिकाओं के प्रयासों के कारण यहां की प्राथमिक और माध्यमिक दोनों ही शालाओं की दर्ज संख्या बेहतर हुई है। पिछले 3 वर्षों में प्राथमिक शाला की दर्ज संख्या 36 से 60 के पास पहुंच चुकी है। खेड़ला गाँव से बच्चों का निजी स्कूल में पलायन भी रुक गया है। अब हर वर्ष लगभग 15 बच्चे निजी स्कूलों से नाम कटवाकर इस स्कूल में दाखिला करवाते हैं। कुल 750 की आबादी वाले इस गांव में अब एक भी बच्चा ऐसा नहीं है जो शिक्षा से छूटा हो।

शिक्षकों के साथ मिलकर सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रयासों के कारण बीते सालों में कई सरकारी स्कूलों में ना केवल बच्चों की संख्या में बढोतरी हुई है, बल्कि पालकों और ग्रामवासियों का सरकारी स्कूल तंत्र में विश्वास भी बढ़ा है। लेकिन इन दिनों मीडिया में विचलित करने वाली खबरें आ रही हैं कि मध्यप्रदेश में शासकीय विद्यालयों के बंद होने का सिलसिला शुरू होने वाला है। मीडिया रिपोर्टों की मानें तो ‘राज्य शिक्षा केन्द्र’ द्वारा ज़ारी किए गए आदेश के अनुसार पहले चरण में लगभग तेरह हजार ऐसे विद्यालयों को बंद करने की तैयारी है जिनमें छात्र-छात्राओं की संख्या शून्य से बीस तक है। ऐसे विद्यालयों को पास के विद्यालयों में विलय कर शिक्षकों की सेवाएं पास के विद्यालयों या फिर अन्य शासकीय कार्यालयों में ली जाएंगी। इसके पीछे नियमों का हवाला दिया जा रहा है कि माध्यमिक शालाओं में न्यूनतम 20 बच्चे और प्राथामिक शालाओं में न्यूनतम 40 बच्चे होने पर ही स्कूल संचालित होंगे।

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‘शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009’ के भाग-4, बिन्दु-6 के अनुसार, हर पढ़ने वाले बच्चे के आसपास की एक किमी की पैदल दूरी पर प्राथमिक विद्यालय और तीन किमी की पैदल दूरी पर माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया जाना केंद्र और राज्‍य सरकारों तथा स्थानीय प्राधिकारी के कर्तव्य और उत्तरदायित्व में आता है। कुछ लोगों का मानना है कि ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून बनने के बाद निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत बच्चों को निशुल्क प्रवेश देने से भी सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम हो रही है। सरकारी स्कूल पर वहां पढ़ने वाले बच्चों के पालकों का विश्वास नहीं रहा, इसलिए भी बच्चों को निजी स्कूलों में भेजा जा रहा है। पर क्या यह पूरी सच्चाई है?

‘नई शिक्षा नीति-2020’ में भी यह कहा गया है कि विभिन्न अभियानों, योजनाओं और प्रयासों के कारण देश की हर बसाहट में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना ने स्कूलों की सार्वभौमिक पहुंच को सुनिश्चित करने में मदद तो की है, लेकिन साथ ही कम छात्र संख्या वाले स्कूल भी वजूद में आए हैं। ‘यू-डाईस-2016-17’ के आंकडों के अनुसार भारत के 28 प्रतिशत सरकारी प्राथमिक स्कूलों और 14.8 प्रतिशत उच्चतर-प्राथमिक स्कूलों में 30 से भी कम छात्र पढ़ते हैं। कक्षा एक से आठ तक में औसतन प्रति कक्षा 14 छात्र हैं, जबकि बहुत से स्कूलों में यह औसत छह से भी कम है। इनमें से अधिकांश कक्षा एक से पांच वाले प्राथमिक स्कूल हैं। इस संदर्भ में संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए ‘स्कूल संकुल’ बनाना एक ठीक-ठाक विकल्प हो सकता है, ताकि कुशलता से प्रबंधन हो सके। लेकिन यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इससे ‘शिक्षा के अधिकार कानून-2009’ में दिए गए प्रावधानों और पढ़ने की शासकीय व्यवस्था के हर बच्चे के हक को बरकरार रखा जा सके।

यह भी गौरतलब है कि शिक्षा में किसी भी तरह के बदलाव के परिणाम मिलने में दो-तीन दशक तो लग ही जाते हैं। तो इसी तरह स्कूलों के समेकन (इकट्ठा करने) करने से पहले क्या यह देखना उचित नहीं होगा कि सरकारी स्कूलों में बच्चों की दर्ज-संख्या को बढ़ाने के लिए क्या और कितने प्रयास हुए हैं? जैसा कि ऊपर दिए उदाहरणों से स्पष्ट है, शासन की नीति अच्छी है, सुविधाएं बेहतर हैं, शिक्षकों की कमी ज़रूर है, लेकिन उसके बावजूद अधिकांश निजी स्कूलों के शिक्षकों की तुलना में शासकीय स्कूलों के शिक्षक कहीं बेहतर शिक्षित हैं, विभिन्न प्रशिक्षणों के माध्यम से अपडेटेड हैं। जनसंख्या की बढोतरी के कारण और शिक्षा को लेकर आम समाज की आकांक्षाओं के चलते समाज में स्कूलों की ज़रूरत तो निश्चित रूप से बढ़ेगी ही। ऐसे में समेकन करके शासकीय स्कूलों की संख्या कम करना समाज हित में दूर-दृष्टि का फैसला नहीं लगता। वरन् शासकीय स्कूलों को बेहतर कर, शिक्षकों की कमी को पूरा करके समाज का विश्वास जीतने की दिशा में कदम उठाना ही समीचीन लगता है। ज़हिर है, इस मुहीम में भूपेंद्र शर्मा, कला मीणा और प्रज्ञा शर्मा जैसे शिक्षकों की भूमिका महती हो जाती है।

आपदा को अवसर के रूप में देखें तो वर्तमान परिपेक्ष्य में कोविड-19 के चलते बहुत सारे परिवार अपने गांव की तरफ लौटे हैं, पालकों के पास रोज़गार नहीं है, वे आर्थिक रूप से तंगहाल हैं। ऐसे में गांवों में अब बहुत सारे बच्चे ऐसे होंगे जिनके लिए सरकारी स्कूल ही एकमात्र विकल्प होगा और सरकार का तो यह घोषित कर्तव्य भी है कि वह सभी बच्चों को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मुहैया करवाए। तब क्यों ना सरकारी स्कूली तंत्र को बेहतर करने के और प्रयास किए जाएं?

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कोविड-काल की बात करें, तो भीड़-भाड़ तो दूर, कहीं 10-20 की संख्या में एकत्रित होना भी ठीक नहीं है। ऐसे में दूर-दराज़ के गांवों में जहां संक्रमण अभी तक पहुंचा नहीं है – कम दर्ज संख्या वाले छोटे स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई शुरू करना, शिक्षा की व्यवस्था को धीरे-धीरे वापस पटरी पर लाने के लिए सबसे पहला कदम हो सकता है। परन्तु यह चिन्ताजनक है कि जब सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले हमारे करोड़ों विद्यार्थी पांच महीनों से सीखने-सिखाने की स्कूली गतिविधियों से दूर हैं, तब शासन उन तक सीधे पहुँचने के इन उपायों के बारे में न सोचकर समेकन करके ठीक उन्हीं स्कूलों को बन्द करने पर विचार कर रही है जो कोविड-काल में शिक्षा के लिए मिसाल बन सकते हैं।

जहां-जहां भी स्कूल व्यवस्थाओं में सुधार हुआ है, वहां पर निश्चित रूप से समाज की सोच में बदलाव आ रहा है। चाहे वह दिल्ली के सरकारी स्कूलों की बात करें या फिर चंडीगढ़ के स्कूलों की, आम आदमी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहता ही है। बीते दो-तीन दशकों में बाज़ार की आक्रामकता ने कहीं यह धारणा बनवा दी है कि सरकारी स्कूल तो खराब हैं, निजी स्कूल में पढ़ाई अच्छी होती है, व्यवस्थाएं अच्छी होती हैं, पाठ्यक्रम भी अच्छा होता है। लेकिन यह भी हम देख रहे हैं कि जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे निजी स्कूलों से मोहभंग भी होना शुरू हो रहा है। खासकर, आज भी ग्रामीण भारत में कक्षा 8 या 10 के बाद विद्यार्थी लौटकर सरकारी स्कूलों का ही रुख करते हैं क्योंकि इस स्तर पर निजि स्कूलों के पास वो संसाधन और शिक्षक ही नहीं हैं जो शासकीय स्कूलों के पास हैं। सही ही कहा जाता है कि भारत की शिक्षा राज्य सरकारों का दायित्व है, एवं स्कूल राज्य का आईना होता है। किसी भी राज्य की शासन-प्रणाली की असली स्थिति का अंदाज़ा उसके स्कूलों की स्थिति से आंका जा सकता है।

भारत सरकार के शिक्षा विभाग की वेबसाईट के अनुसार देशभर में 15.50 लाख स्कूल हैं। इनमें से 13.04 लाख ग्रामीण इलाकों में हैं और मात्र 2.46 लाख शहरी इलाकों में। एक अलग नज़र से देखें तो इन 15.50 लाख स्कूलों में से 10.83 लाख सरकारी स्कूल हैं, शेष निजी, अनुदान-प्राप्त और अन्य हैं। पूरे देश में इन्हीं 10.83 लाख सरकारी स्कूलों में 12.84 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं, और मध्यप्रदेश के 1.53 लाख स्कूलों में से 1.22 सरकारी स्कूलों में भी 91 लाख से अधिक बच्चे पढ़ते हैं।

फिर भी हज़ारों सरकारी स्कूल हैं जिनमें भले ही कम बजट जाता हो, शिक्षा की बुनियादी सुविधाएं ना हों, लेकिन वहां रहने वाले समाज के सबसे हाशियाकृत वर्ग की पहली पीढ़ी के छात्र-छात्राओं के लिए शिक्षा से जोड़ने का वह एकमात्र विकल्प है। कमज़ोर वर्ग की मुश्किलों को समझने के लिए राजनैतिक रूप से यह कहना कि सभी को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहिए– एक बात है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है सरकारी स्कूल तंत्र की बेहतरी के लिए राजनैतिक निश्चय का होना – जो श्रमसाध्य ज़रूर है, परन्तु अवश्य संभव है।

(सर्वोदय प्रेस सर्विस से साभार)