ये किसका लहू है कौन मरा
Delhi 2020 एक कौम, जिस से एक लम्बे वक्त तक मैं भी बेवजह नफरत करता, खौफ खाता रहा हूं।
जन्मना जो देश, प्रदेश, धर्म और जाति मिली, उस पर मेरा वश कहां था?
जिन मोहल्लों में मैं रहा, जिन पाठशालाओं में मुझे दाखिला दिलवाया जाता रहा, वहां उस कौम के नाम लेवा तक बमुश्किल होते थे।
इस तरह जो “संस्कार” मुझे मिलें, उन में ही खौफ और नफरत शामिल थी।
कला-साहित्य की सोहबत ने ‘मनुष्य’ बनने की राह सुझायी, पर उस पर चलने के लिए विरासत में मिला बहुत सा ‘असबाब’ छोड़ आना जरुरी था। जो नामुमकिन नहीं तो आसान भी न था।
बहरहाल, दिल का मैल छुड़ाने के लिए ना ना उपाय किये, तब भी दावा नहीं कर सकता कि उसके दाग-धब्बे मिट ही चुकें । हां, धुंधला तो गये ही हैं।
इसी तरह धोता रहूं अपना अन्तस तो शायद मिट जायेंगे किसी रोज़।
दहकती दिल्ली की तस्वीरें देखते हुए यह सब याद आया।
वे अनजान चेहरें रह-रह कर याद आये, 1जनवरी 2020 से भोपाल के इकबाल मैदान पर सीएए/ एनआरसी/एनपीआर के मुखालिफ चल रहे सत्याग्रह में करीब-करीब रोज़ जाते रहने से जिन से कुछ-कुछ राब्ता बना।
सोचता हूं कि सही वक्त पर मुझे प्रेमचंद के उपन्यासों और मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को पढ़ने-देखने के मौके न मिले होते तो मैं भी घृणा और नफरत के उसी बजबजाते कीचड़ में धंसा रहता, जिस में वे चेहरे डूबे हुए हैं, जो लाशे देख कर किलकार रहे हैं।
बेवजह नहीं कि साहिर याद आये –
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा।
( चित्र-कागज़ पर कलम और स्याही से)