Delhi Riots 2020

सवाल-जवाब: 16 सवालों के जरिये मौजूदा हिंसा की पृष्ठभूमि, आज के हालत और आगे की राह

Delhi Riots 2020 सचिन श्रीवास्तव

दिल्ली की हिंसा कब शुरू हुई?
विभिन्न मीडिया रिपोर्ट कह रही हैं कि दिल्ली की यह हिंसा 23 फरवरी की रात शुरू हुई। असल में तो यह सच नहीं है। इसकी पृष्ठभूमि में कपिल मिश्रा का बयान है, तो 20 फरवरी का वारिश पठान का बयान भी है। सीएए विरोधी प्रदर्शनों पर कटाक्षों से, नफरत से, अपनी जुबान से, अपनी नजरों से, अपने रुतबे से प्रदर्शनकारियों पर हिंसा की पृष्ठभूमि कई लोगों ने तैयार की।

इस हिंसा में अन्य घटनाओं का भी योगदान है?
बिल्कुल है। इस हिंसा में उस खत का योगदान भी नहीं भूलना चाहिए जो सीएए के समर्थक लेखक, बुद्धिजी​वीयों ने राष्ट्रपति कोविंद को लिखा और अनुरोध किया कि सीएए के विरोध में प्रदर्शन करने वालों पर कड़ी कार्रवाई की जाए। जेएनयू के होस्टल में घुसकर की गई हिंसक कार्रवाई, जामिया में पुलिस के लाठीचार्ज और उसके भी पहले 12 दिसंबर को सीएबी यानी कैब का कानून में परिवर्तित होना या 4 दिसंबर को विधेयक का सदन के पटल पर रखा जाना, या बाबरी मस्जिद पर फैसला आया या 5 अगस्त को कश्मीर पर संविधान विरोधी फैसले का भी इस हिंसा में बराबर का योगदान है।

यह तो हालिया घटनाएं हैं, क्या कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी है?
जी हां, घटनाओं की लंबी श्रृंखला को देखें तो 2019 की नई सरकार की आमद, 2017 की जीएसटी, 2016 की नोटबंदी, 2014 के चुनाव, 2002 का गुजरात, 1992 का बाबरी ध्वंस, 1984 की दिल्ली, 1975 का आपातकाल और नफरत के इस दरख्त के सबसे निचले हिस्से में 1947 भी है।

लेकिन देश में हिंदू—मुस्लिम एकता तो ऐतिहासिक सच्चाई है?
बिल्कुल है। यह देश साझी विरासत का ही है, लेकिन नफरत का जो पौधा दशकों की मेहनत से दरख्त बना है, अब उसे काटने के लिए कितने औजार लगेंगे कहा नहीं जा सकता है। हो तो यहां तक गया है कि अब मौलाना अबुल कलाम आजाद मुस्लिम हो गए हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदू। गालिब, मीर, फैज, कैफी, रसखान मुस्लिम हैं, तो सूर, तुलसी, दिनकर, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदू खाते में आ गए हैं। यानी बंटवारा जारी है और ये जारी रहेगा। जारी रहना चाहिए या नहीं— ये बिल्कुल जुदा मसला है। यह हैरत है कि कौमी एकता की मिसालें देते हुए हम सब अपने बुजुर्गों को हिंदू—मुस्लिम बना देते है। रजिया सज्जाद जहीर को मुस्लिम कोई कैसे मान सकता है, या मुक्तिबोध को कैसे हिंदू मान लें हम। ये धर्म से परे हम सबके बुजुर्ग हैं।

इस हिंसा की जमीन कैसे तैयार हुई?
असल में, हिंसा एक दिन में नहीं होती। राजकीय छत्रछाया में भी अगर हिंसा करानी है तो उसके लिए ऐसे जेहन का होना जरूरी है, जो हथियार चलाने से पहले सोचे न। उसे सामने वाला शख्स अपना, देश का, समाज का सबसे बड़ा दुश्मन लगे। बीते 70 साल से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने यह बखूबी किया है कि एक वर्ग को देश का, समाज का सबसे बड़ा दुश्मन साबित कर दिया है। देश के बच्चों को यह बताया गया कि आखिर मुस्लिम अगर इस देश में नहीं होते तो देश की तस्वीर कुछ और ही होती। एक खास समुदाय को ही देश की बेरोजगारी, आर्थिक समस्या, किसानों की समस्या यहां तक कि महिला हिंसा तक के लिए जिम्मेदार मान लिया गया है।

कांग्रेस लंबे समय तक शासन में रही, उसने क्या किया?
हकीकत यह है कि चाहे कांग्रेस का चार दशकों का लगातार राज हो, या ​बीच में करीब दो दशक की गठबंधन सरकारें हों या फिर मौजूदा राजग सरकार हो सबने विकास के एजेंडे पर बहुत धीमी रफ्तार अपनाई और इससे उपजी निराशा को भरने के लिए लगातार हिंदू—मुस्लिम से लेकर विभिन्न जाति आधारित संघर्षों तक के लिए जमीन मुहैया कराई। ​और इससे भी काम नहीं चला तो हर समस्या को पाकिस्तान के माथे पर रख देने का चलन भी नया नहीं है।

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मोदी सरकार ने ऐसा क्या नया कर दिया, सत्ता का तो चरित्र ही यह है?
अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से सीख लेते हुए मोदी सरकार ने साल 2019 में चुनाव के पहले और बाद लगातार कोशिशें की हैं कि यह देश हिंदू—मुस्लिम की आग में झुलसे। ताकि अन्य समस्याओं पर से ध्यान हटाया जा सके। इसके लिए कभी तीन तलाक, कभी 370, कभी बाबरी, कभी अयोध्या के दांव चले गए। लेकिन मुस्लिमों ने संघ परिवार को निराश किया। इतना निराश की आखिर शाहीन बागों में हिंसक पहल के लिए कपिल मिश्रा को अपने स्वयं के मुंह से भडकाउ बयान देना पड़ा। सरकार को उम्मीद थी कि तीन तलाक पर मुस्लिम समाज उबल पड़ेगा— वह शांत रहा। सोशल मीडिया पर लगातार कमजर्फों की फौज भड़काउ शैली में उलजलूल बातें करती रही। कश्मीर तक के मामले में देश में नामालूम सी चुप्पी थी। आखिर सीएए ने उस खामोशी पर आखिरी दस्तक दी और महिलाओं समेत पूरे देश के छात्र, नौजवानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का वह तबका जो सोचने—समझने की सलाहियत रखता है, बाहर निकला।

तो क्या मुस्लिम समाज को चुप रहना था?
बिल्कुल नहीं, बाहर आकर दायरे को तोड़ना जरूरी था। बीते 6 साल से ऐसे हालात बना दिए गए थे कि इस सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन हो ही नहीं सकता, तो य​ह एक अच्छी बात थी कि लोग बाहर निकले। पुणे के एफटीआईआई का आंदोलन हो या फिर आक्यूपाई यूजीसी ऐसे छुटपुट आंदोलन हुए लेकिन देशव्यापी आंदोलन जरूरी था। हालांकि यह सरकार की बड़ी जीत थी, कि उसने मुस्लिमों में उबाल लाया, लेकिन इसके अलावा मुस्लिम समुदाय के पास कोई चारा नहीं था।

मुस्लिमों के साथ बाकी लोकतांत्रिक समाज की हिस्सेदारी क्या है?
उम्मीद ये थी कि नागरिकता के सवाल पर तमाम दलित, आदिवासी व अन्य हाशिये के समुदाय जैसे ट्रांसजेंडर और घुमंतू विमुक्त जातियां तक सामने आएंगी लेकिन देश के शाहीन बागों में असल में यह स्थिति नहीं बनी और अब तक सीएए विरोधी प्रदर्शनों में बड़ी संख्या मुस्लिमों की है, वहीं उदार, लोकतांत्रिक, वामपंथी सोच के एक बड़े हिस्से ने अपनी सक्रिय भागीदारी तो निभाई है, लेकिन फिलहाल वह उतनी बड़ी तादाद में नहीं है, जिसकी जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब यह गोलबंदी तेज होगी।

हिंदु और मुस्लिम के बीच फासले ने मौजूदा हालात में कैसे काम किया?
इस फासले की शुरुआत तो आजादी के बाद ही हो गई थी। लेकिन सरकार और संघ परिवार करीब छह साल से नफरत की जो खेती बड़े पैमाने पर कर रहे थे, उसकी फसल पकती हुई दिखने लगी थी। मुस्लिम वर्ग सड़कों पर था और हिंदू समाज के बड़े हिस्से में हिंसक सोच बैठा ​दी गई थी। इतनी कि आप किसी आम शख्स से बात करें तो उसे मुसलमान के मरने का कतई कोई दुख नहीं होता है। यह वही हिंदु समुदाय है जो अपने बेहतर, आम दिनों में एक चिड़िया, एक चींटी की मौत पर कराह दे, लेकिन फिलवक्त गाय की मौत के बदले में मुस्लिमों की पूरी की पूरी बस्ती जला देने को तैयार है। यानी हिंदुओं के ​इस हिस्से के लिए मुस्लिम समाज के इंसानों की जान की कीमत किसी पेड़, पहाड़ या पत्थर की इमारत से भी कमतर थी। इतिहास से निरपेक्ष और लगभग कुपढ़ इस वर्ग के दिमाग में नफरत को इस हद तक बैठा देना संघ परिवार की बड़ी कामयाबी थी।

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लेकिन यह तो काफी समय से था, फिर यह हिंसक कैसे हुआ?
असल में नफरत की आंधी तो चल ही रही थी। बस अब इन दोनों वर्गों को आमने सामने लाना था और वह काम किया कपिल मिश्रा के बयान ने। आग लग चुकी है। दिल्ली झुलस चुकी है। बाकी शहरों तक आग न पहुंचे इसके सरकारी प्रयास जारी हैं, लेकिन वे कितने कामयाब होंगे— कहा नहीं जा सकता। शांतिपूर्ण कोशिशों पर भरोसा करना चाहिए।

समाज के दो वर्गों के बीच तनाव था, हिंसक घटना कभी भी हो सकती थी, तो इस बीच प्रशासन, पुलिस, सरकार कहां है?
यही वह बिंदू है, जिस पर सोचने की जरूरत है। आखिर सरकारी तंत्र क्या कर रहा था। हिंसा होती है, लोग मरते रहे। एक पक्षीय हिंसा होती रही और सब कुछ चुपचाप चलता रहा। पुलिस चुप थी या फिर एक वर्ग के दंगाइयों का साथ दे रही थी। वहीं सीआरपीएफ को कुछ भी न करने की हिदायत थी।

क्या यह हिंसा सरकारी छत्रछाया में हुई?
देखने में ऐसा ही लगता है। वैसी ही राजकीय हिंसा जिसका उदाहरण 2002 के गुजरात में मिलता है। और क्या संयोग है कि उस वक्त गुजरात की दो सबसे ताकतवर शख्सियतें इस वक्त दिल्ली में हैं। अब इस हिंसा से सबक क्या निकलते हैं। गुजरात को भी देखें तो वहां रुक—रुककर हिंसा का दौर चला था। करीब दो महीने तक। कहा तो यह भी जाता है कि 27 फरवरी की गुजरात के प्रशासन की एक कुख्यात मीटिंग में राज्य की पुलिस को भावनाओं का ज्वर निकल जाने देने की हिदायत दी गई थी। इस पर बेहद सतर्कता से सोचना समझना चाहिए। आखिरकार बड़ा तथ्य यही है कि लोग मरे हैं, मौतें हुई हैं, उनके लिए जिम्मेदार कौन है! प्रशासन क्यों नहीं इन घटनाओं को रोक पाया। कोई भी हो, किसी भी समुदाय का हो उसे सलाखों के पीछे होना चाहिए और देश की अदालत ही उसका फैसला करे। किसी भीड़ के जरिये न्याय की प्रक्रिया चलाना समाज के बीमार होने का सबूत है।

दिल्ली को जलने से कैसे बचाया जा सकता है?
जाहिर है दिल्ली आज जिस मुहाने पर खड़ी है, उसमें कभी भी कुछ भी हो सकता है। इसे जलने से बचाने के लिए देश के शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के उसूल पर चलने वाले वर्ग को शिद्धत से आगे आना होगा। यह वर्ग सक्रिय है लेकिन अभी तक इसकी सक्रियता फेसबुक, व्हाट्सएप से निकलकर जमीन पर बड़ी संख्या में दिखाई नहीं दी है।

आगे उम्मीद क्या है?
उम्मीद एक ऐसा दरख्त है, जो हर खिजां के बाद, हर पतझड़ के बाद खिलता है। नई कोंपलें आती हैं। हम उम्मीद ही नहीं यकीन करते हैं कि यह नफरत का दौर खत्म होगा, जल्द खत्म होगा। देश और समाज अपनी असली समस्याओं की ओर लौटेगा, जो बच्चों की शिक्षा, युवाओं के रोजगार, महिलाओं की सुरक्षा, किसानों की खेती, मजदूरों की आमदनी, दलितों के लिए न्याय, आदिवासियों के अधिकार, बुजुर्गों के सपने से जुड़ा है और पूरे समाज की गैरबराबरी को खत्म कर सबके लिए बेहतर दुनिया बनाने की जरूरत से जुड़ा है। यकीनन आखिरकार यही होना है, यही करना है, यही होगा। हम खूबसूरत देश, समाज और दुनिया को गढ़ेंगे।