नई नक्सल रणनीति के संकेत

Guerrilla warfare is a people’s warfare; an attempt to carry out this type of war without the population’s support is a prelude to inevitable disaster.
The guerrilla is supported by the peasant and worker masses of the region and of the whole territory in which it acts. Without these prerequisites, guerrilla warfare is not possible.
Che Guevara

सचिन श्रीवास्तव
छत्तीसगढ़ में कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन की रिहाई की तस्वीरें जारी हुर्इं थीं, तो कई सवालों के बीच एक जान बचने की खुशी हर उस देशवासी को हुई, जो शांति और सामंजस्य के साथ बेहतरी के रास्ते पर चलना चाहता है। नक्सलियों के प्रबल समर्थक भी शोषण का जवाब हिंसा में ढूंढने और सत्ता परिवर्तन के गुरिल्ला रास्ते के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं हैं। खासकर भारत में। इसकी अपनी राजनीतिक, रणनीतिक और सामाजिक खामियां हैं। ऐसे में एलेक्स पॉल प्रकरण से भारत में नक्सल राजनीति की बदलती रणनीति पेचीदा होने के साथ-साथ अधिक भयावह और गैर-जिम्मेदार भी होगी, ऐसी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
इस प्रकरण ने कई सवाल अपने अनूठेपन के साथ खड़े किए हैं। खासकर नक्सल राजनीति के अगले कदम को लेकर असमंजस साफ होने लगा है। एलेक्स पॉल को बंधक बनाने की घटना अपने आप में अनूठी, नई नक्सल रणनीति की शुरुआत और रिहर्सल मात्र है। याद कीजिए बेगूसराय जेल ब्रेक कांड को उसके पहले नक्सलियों ने अपने आधार क्षेत्र में स्थिति छोटी जेलों पर कई हमले किए थे। इनमें उनका उद्देश्य किसी बंधक को छुड़ाना नहीं, बल्कि बड़ी घटना की रिहर्सल मात्र था, जिसमें हथियारों की लूट एक प्रासंगिक और छद्म हमले को पुख्ता करने के लिए की जाती थी। इसकी परिणति हुई जहानाबाद जेल ब्रेक के साथ। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के हालिया अपहरण में नक्सलियों की मांग और समझौते के बीच की चौड़ी खाई में वे सारी बातें साफ हो जाती हैं, जो किसी भी दबाव या विद्रोही समूह की असली उद्देश्य के प्रति सचेत करती हैं।
नक्सली मेनन को ज्यादा दिन तक साथ नहीं रख सकते थे। गुरिल्ला रणनीति में बाहरी व्यक्ति को लंबे समय तक दस्ते के साथ न रखने का लिखित नियम है। साथ ही बाहरी व्यक्ति वह भी प्रशासन से जुड़ा हुआ, कलेक्टर जैसा अफसर नक्सलियों के साथ जितने दिन बिताएगा, उनकी खामियों को भी उसी तेजी से पकड़ेगा। इसलिए नक्सली खुद ज्यादा दिन तक यह खतरा बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं थे। दूसरी बात, नक्सलियों को भी पता था कि उनकी सारी मांगें नहीं मानी जानी हैं। दिलचस्प यह है कि मौटे तौर पर उनकी कोई मांग नहीं मानी गई है, और उन्होंने मेनन को छोड़ दिया। वह भी बहुत आसानी से। क्या यही वजह शक करने के लिए काफी नहीं है? साफ है कि उद्देश्य कुछ और है। वह है रिहर्सल का। मेनन का अपहरण वह रिहर्सल था, जो एक बड़ी घटना की ओर इशारा कर रहा है। क्या हमारा खुफिया तंत्र और राजनीतिक इस संबंध में सचेत हैं? इस सवाल को यही छोड़कर गौर करना चाहिए, उस स्थिति पर जिससे पूरा नक्सल समुदाय जूझ रहा है।
2004 में एमसीसी और पीपुल्स वार के बीच विलय के बाद दोनों गुरिल्ला समूहों की रणनीतियां तेजी से बदली थीं। तब कई पूर्व नक्सली आपराधिक गिरोहों के साथ मिल गए थे। या पूरे दस्ते आपराधिक कृत्यों में लिप्त हुए थे। साथ ही लेवी के रूप में वसूली गई रकम भी नक्सलियों के लिए सिरदर्द बन रही थी। आए दिन नक्सलियों का पैसा उनके ही साथी लूट कर फरार होते थे। एमसीसी और पीपुल्स वार के विलय से ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं तो रुकी, लेकिन रणनीतिक और कार्रवाई के स्तर पर दोनों में असमानता आड़े आई। एमसीसी जहां सीधी कार्रवाई में यकीन रखती थीं, वहीं पीपुल्स वार के लड़ाके छुप कर वार करने में महारत हासिल कर चुके थे। विलय से नाखुश कुछ नक्सलियों ने खुद को मुख्यधारा की तरफ भी मोड़ा। 2005 से 2007 के बीच बड़ी संख्या में समर्पण की घटनाएं इसकी उदाहरण हैं। 2005 में जहानाबाद जेल ब्रेक विलय के बाद पहली बड़ी घटना और एकता की अधिकारिक घोषणा थी।
नक्सली सत्ता हासिल करने की चार दशक लंबी जो लड़ाई शोषण की ढाल के पीछे लड़ रहे हैं, उसमें जीत के प्रति वे खुद आशान्वित नहीं हैं। क्यूबा समेत पूरे लैटिन अमेरिका और एशिया में चीन और अन्य देशों का इतिहास बताता है कि गुरिल्ला रणनीति की लंबी लड़ाई संभंव नहीं है। गुरिल्ला रणनीति पांच-सात साल के संघर्ष में तो ठीक है, लेकिन दशकों तक चलने वाली लड़ाई में बगैर मजबूत आधार क्षेत्र के यह नाकाम है। गुरिल्ला रणनीति की कामयाबी के लिए प्राथमिक शर्त वैसे भी शोषित जनता में से करीब 70 से 90 प्रतिशत के बीच पैठ होना लाजिमी है। भारत जैसे बहुलवादी और बड़े देश में यह असंभव है। इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। चार दशक की लंबी, खूनी और भटकी हुई लड़ाई में यह बात साफ हो चुकी है।
फिर क्या वजह हैं कि नक्सली जिंदा हैं, वे जंगलों में छोटे पैमाने पर ही सही समांनांतर सरकार चला रहे हैं और भारतीय शासन के लिए ‘सबसे बड़ा खतरा’ हैं? इस सवाल के सूत्र हमारी राजनीति में ढूंढे जा सकते हैं। नक्सली राजनीतिक रूप से वामपंथ के करीब माने जाते हैं, लेकिन भारत में शासन करने वाली पार्टियां अमूमन वामपंथी नहीं रही हैं। नक्सल को आज तक भारत में राजनीति माना ही नहीं गया है, यह महज आपराधिक गिरोह से अधिक मान्यता प्राप्त नहीं कर सके हैं। ऐसा आपराधिक गिरोह जिसने वाम राजनीति की हिंसक छवि बनाई है। इससे सबसे ज्यादा फायदा भाजपा और कांग्रेस जैसे छद्म लोकतांत्रिक समूहों को होता है, जो हिंसा के उदाहरणों में वाम राजनीति के सवालों को पीछे धकेल देते हैं। इसलिए कोई कारण नहीं रह जाता यह मानने में कि असल में नक्सल समस्या हमारे दोनों बड़े राजनीतिक दल खत्म ही नहीं करना चाहते।  इससे जिन समूहों को लाभ होता है, उनके आर्थिक हित भी हैं। नक्सल के नाम पर जो पैसा पुलिस, प्रशासन और राजनीतिक ईकाइयों को मिलता है, उसके बारे में कोई पूछने वाला नहीं होता है।
यह पेंच अपनी जगह हैं, लेकिन फिलहाल बड़ा खतरा नक्सल रणनीति की अपहरण तकनीक से है। मेनन मामले में नक्सलियों ने समझौते और बातचीत की खामियां परखी होंगी। इसके पीछे जिन मास्टर माइंड की बात की जा रही है, उनकी कार्यपद्धति भी किसी से छुपी नहीं है। दिग्गज नक्सली प्रसन्ना, गणेश और छत्तीसगढ़ में ग्रामीणों के बीच प्रसिद्धि हासिल कर चुके विजय के दिमाग छोटी कार्रवाइयों तक सीमित रहेंगे, यह सोचना बड़ी भूल है। संभव है कि वे यह सुनिश्चित करना चाहते हों कि बड़े अपहरण में कैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही वे अपनी ताकत और खुफिया तंत्र को भी सरकारी दरारों के मार्फत पुख्ता करने की तैयारी में होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह महज आकलन हों, और इनमें कोई सच्चाई न हो। लेकिन क्या इसे पूरी तरह खारिज किया जा सकता है। नक्सलियों ने पहले भी बीडीओ स्तर के अधिकारियों का अपहरण किया है, लेकिन उसमें रिहाई के लिए सौदेबाजी या फिर बड़े स्तर पर वार्ता जैसी घटनाएं सामने नहीं आई हैं। यह रिहाई अपने आप में नए खतरे की ओर संकेत कर रही है। क्या हमारा प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व चुपचाप इस खतरे के सामने आने का इंतजार कर रहा है? या न झुकने, न समझौता करने की पुख्ता, कामयाब और ठोस कार्यनीति तैयार कर रहा है?
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)

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