बनारस घराने की ख्याल गायकी का जादू

29 जुलाई 2016 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित
सचिन श्रीवास्तव
भारतीय शास्त्रीय संगीत की सांसें उसके घरानों में बसती हैं। विविध घरानों में पला-बढ़ा भारतीय संगीत आज दुनियाभर में पहचाना और सराहा जाता है। घराना गायकी के इस सफर में मल शहर और मिट्टी की खुशबू भी दुनिया भर में फैली है। घराना गायकी के क्रम में आज बात करते हैं बनारस घराने की …
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में गायन-वादन कला को नए मुकाम देने के लिए बनारस घराने को याद किया जाता है। ख्याल गायकी को बनारस घराने के पर्यायवाची के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इस घराने के तबला वादकों ने भी संगीत को एक स्वतंत्र शैली दी है। साथ ही सारंगी वादन में भी बनारस घराने का अहम योगदान है। बनारस की गायकी-वादन में उत्तर भारत की लोक गायकी का प्रभाव है। जनजातीय संगीत का असर भी है। इस तरह जनजातीय संगीत से लोक गायकी तक लंबी परंपरा यहां मौजूद है। लखनऊ में पैदा हुई ठुमरी भी बनारस में विकसित हुई।
यूं बनी बनारसी ठुमरी
ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (तंवर) ठुमरी के प्रवर्तक थे। बनारस की ठुमरी पंडित जगदीप मिश्र से शुरू हुई। मिश्रजी, भैया गणपतराव एवं मौजुद्दीन खान के समय से विलंबित लय की बोल बनाव ठुमरी के गाने का प्रचलन बढ़ा और बनारस में यह फली फूली। इसके बाद इसी ठुमरी में पूरब की बोलियों और लोकगीतों का असर आया। इसके बाद यह ज्यादा भाव प्रधान हुई और आज यह ‘बनारसी ठुमरी’ के नाम से प्रचलित हुई।
बनारसी ख्याल शैली
बनारस घराने का ख्याल गायकी में अहम योगदान है। इसमें शब्द का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है। स्वरों के माध्यम से पूरी ताकत के साथ भावनाएं प्रदर्शित की जाती हैं। यूं भी बनारस घराने के गायक ख्याल गायन के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं। ख्याल का अर्थ है ‘कल्पना’। इस कल्पना की अभिव्यक्ति में विविधता और सावधानी जरूरी तत्व हैं। ख्याल गायन की हजारों साल पुरानी परंपरा मुगल दौर में ध्रुपद शैली में गाई जाती थी। बनारसी ख्याल गायन में बनारस और गया की ठुमरी की भी हिस्सेदारी है।
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