रेडिएशन : तो क्या झूठ बोलती हैं मोबाइल कंपनियां?

सचिन श्रीवास्तव
मोबाइल से होने वाला रेडिएशन सेहत के लिए कितना हानिकारक है? यह सवाल दुनियाभर में कई मंचों पर कई तरीके से उठाया जा चुका है। इसके जवाब की तलाश के लिए कई किस्म के शोध भी हो चुके हैं। दिलचस्प यह है कि यह शोध एक ही तरह के नतीजे नहीं दिखाते। ऐसे में ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल सायंसेज (एम्स) ने अभी तक के कई रिसर्च का विश्लेषण किया तो बेहद दिलचस्प तस्वीर सामने आई। मेडिकल जर्नल न्यूरॉलजिकल साइंसेज में प्रकाशित इस विश्लेषण में पाया गया कि सरकार की ओर से कराए गए शोध और अध्ययनों में मोबाइल रेडिएशन से ब्रेन ट्यूमर होने की आशंका ज्यादा बताई जाती है, जबकि मोबाइल इंडस्ट्री से जुड़ी कंपनियां जब ऐसे अध्ययन कराती हैं, तो शोध के नतीजों में आशंका को कम बताया जाता है।

हमने पाया कि इंडस्ट्री की ओर से मुहैया कराए गए फंड से होने वाले अध्ययन की गुणवत्ता सही नहीं थी और वे खतरे को कम आंकते हैं। सरकारी राशि से होने वाले अध्ययन में साफ बताया गया है कि लंबे समय तक मोबाइल रेडिएशन के नजदीक रहने से ब्रेन ट्यूमर का खतरा बढ़ जाता है।
-डॉ कामेश्वर प्रसाद, प्रमुख न्यूरॉलजी विभाग (एम्स और विश्लेषण के मुख्य लेखक)

22 अध्ययनों का विश्लेषण
10
सरकार की ओर से प्रायोजित अध्ययन थे इनमें
07 अध्ययनों में सरकार और मोबाइल निर्माता कंपनियों दोनों की थी भागीदारी
03 अध्ययन पूरी तरह से मोबाइल इंडस्ट्री द्वारा प्रायोजित

1996 से 2016 के बीच दुनियाभर में किए गए यह अध्ययन
48,452 लोगों पर किए गए अध्ययनों में बनाया गया आधार

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1.33 गुना ज्यादा है ब्रेन ट्यूमर का खतरा
लंबे वक्त तक मोबाइल का इस्तेमाल करने पर हुए शोध के नतीजे बताते हैं कि इससे ब्रेन ट्यूमर का खतरा 1.33 गुना बढ़ जाता है। यानी अगर 100 लोगों को ब्रेन ट्यूमर होता है, तो रेडिएशन की वजह से यह आंकड़ा 133 तक जा सकता है। अध्ययन में कम से कम 10 साल या 1,640 घंटे तक मोबाइल उपयोग को लंबी अवधि का उपयोग माना गया।

सरकारी अध्ययन की गुणवत्ता बेहतर
विश्लेषण के नतीजों में बताया गया है कि सरकार की ओर से प्रायोजित अध्ययन की गुणवत्ता का स्तर 7 या 8 था, जबकि इस मामले में इंडस्ट्री के अध्ययनों का स्तर 5 या 6 ही रहा। कम गुणवत्ता इस बात की ओर इशारा करती है कि अध्ययन के नतीजे पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकते हैं। एम्स के विश्लेषण में बताया गया है कि अधिक गुणवत्ता वाले अध्ययन ब्रेन ट्यूमर के खतरे की ज्यादा आशंका जाहिर करते हैं, जबकि कम गुणवत्ता वाले अध्ययन इसके बचाव में नजर आते हैं।

कुछ शोध नकारते हैं ब्रेन ट्यूमर की आशंका को
यूं तो ज्यादातर शोध कम या ज्यादा ब्रेन ट्यूमर की आशंका बताते हैं, लेकिन हैरत की बात यह है कि कुछ अध्ययन यहां भी कहते हैं कि मोबाइल फोन के इस्तेमाल से ब्रेन ट्यूमर से बचा जा सकता है।

इस तरह बढ़ता है खतरा
-मोबाइल फोन के एंटीना से रेडियो तरंगें निकलती हैं।
-शरीर के जो हिस्से एंटीना के सबसे नजदीक होते हैं, वे तरंगों की ऊर्जा सोख सकते हैं। जैसे कान आदि।
– बच्चों के कान के नजदीक मौजूद नाजुक कोशिकाओं को ब्रेन ट्यूमर का खतरा सबसे ज्यादा रहता है।

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कैसे बचें इस रेडिएशन से
-सिर में रेडिएशन का खतरे कम करने के लिए वायरलेस हेडफोन या हेंडसेट का इस्तेमाल करना चाहिए
– कम पावर का ब्लूट्रूथ भी लगा सकते हैं
– फोन पर ज्यादा लंबी बातें न करें।
– ज्यादा बात करने के बजाय मैसेज भेजें।
– बच्चे, किशोर और गर्भवती महिलाएं बेहद सतर्क रहें।

ब्रेन ट्यूमर के अलावा और भी खतरे
मोबाइल रेडिएशन की वजह से महज ब्रेन ट्यूमर की आशंका नहीं रहती, बल्कि कई अन्य शारीरिक खतरे भी हैं। मोबाइल फोन के ज्यादा इस्तेमाल से पुरुषों के वीर्य की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। इस संबंध में सरकार कई वैज्ञानिक संस्थाओं से शोध करा रही है। वैसे भी साल 2011 में एक अंतर-मंत्रालयीन समिति कह चुकी है कि मोबाइल टावरों को सघन रिहाइशी इलाकों, स्कूलों, खेल के मैदानों और अस्तपातों के नजदीक नहीं लगाना जाना चाहिए।

कई जंतुओं के लिए खतरनाक
मोबाइल रेडिएशन इंसानों के लिए तो खतरनाक है ही इसकी चपेट में अन्य जीव-जंतु भी आते हैं। अंतर-मंत्रालयीन समिति ने साल 2011 में एक शोध के आधार पर कहा था कि बड़े शहरों में तितलियों, मक्खियों, कीड़ों और गौरैया के लुप्त होने की वजह मोबाइल टावर का रेडिएशन हो सकता है। हालांकि मोबाइल कंपनियां कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों का हवाला देकर कहती रही हैं कि टावर के रेडिएशन और सेहत के नुकसान के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है।