युद्ध से ज्यादा जरूरी है युद्ध का माहौल

सचिन श्रीवास्तव
फर्ज कीजिए कि आप जिस गांव-मोहल्ले में रहते हैं, वहां के किसी अड़ोसी-पड़ोसी या दूर के ही घर से आप लगातार कोई ऐसी चीज खरीदते हैं, जो आपके लिए बेहद जरूरी है, और जिसमें उसे यानी बेचने वाले को खासा मुनाफा होता है। इतना कि उसका परिवार ही उससे चलता है। मान लीजिए दूध ही। 
फिर एक दिन अचानक आप कहते हैं कि आगे से आपसे दूध नहीं लेंगे। अब हम खुद गाय पालेंगे। ऐसे में आमतौर पर क्या होगा? जो आपको दूध बेच रहा है, वह गाय पालने की मुश्किलें बताएगा, कहेगा कि हम हैं न आप तो लीजिए। कुछ सस्ता कर देते हैं। फिर भी आप नहीं मानेंगे तो हो सकता है कि वह कहे कि ले लीजिए गाय। चलिए हम ही बता देते हैं। कोई दिक्कत आएगी तो हम बताएंगे कैसे पालना है। कब उसका इलाज कराना है, कैसे सानी देनी है, कब गाय को चारा देना है। 
इस कहानी को कुछ देर के लिए रोकते हैं और कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं। 
पूरी दुनिया में रक्षा पर खर्च के मामले में भारत पांचवें स्थान पर है। हम अमरीका, चीन, रूस और सऊदी अरब के बाद सबसे बड़ा रक्षा बजट खर्च करते हैं। अभी हालिया बजट की बात की जाए तो भारत का रक्षा बजट 3.18 लाख करोड़ रुपए का है। नहीं समझे, 3.18 लाख करोड़ रुपए यानी 318 के आगे 10 शून्य – 3180000000000 रुपए। इसमें 1.08 लाख करोड़ रुपए रक्षा पेंशन का अलग है। 
चलिये इस बात को दूसरे तरह से देखते हैं। असल में, 2008 से 2012 के पांच साल और फिर 2013 से 2017 के बीच के पांच सालों की तुलना करें तो इस दौरान भारत का हथियारों का आयात 24 प्रतिशत बढ़ गया है। 
इसमें एक तथ्य और जोड़ लीजिए। यह कि- भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का आयातक देश है। इसके बाद सऊदी अरब, मिश्र, यूएई, चीन, ऑस्ट्रेलिया, अल्जीरिया, ईराक, पाकिस्तान और इंडोनेशिया का नंबर आता है।
एक और बात। बीते पांच सालों मे भारत ने जो हथियार खरीदे हैं, उनमें से 62 प्रतिशत हथियार रूस से, 15 प्रतिशत अमेरिका से और 12 प्रतिशत इजराइल से खरीदे हैं। 
अब इसमें कुछ बातें ठहरकर सोचिए। भारत रक्षा उत्पादों के मामले में आत्मनिर्भर होना चाहता है। बीते 4 साल से इसमें राजनीति हुई है और कोशिशें बेहद धीमी हैं, लेकिन फिर भी बात आगे बढ़ाना शुरू हुई है। 
अब हम जो हथियार रूस, अमेरिका, इजराइल और ऐसे ही बड़े हथियार निर्यातकों से खरीद रहे हैं, उसमें अगर हम कटौती करते हैं, तो लाजिमी है कि इन बड़े देशों को यह नागवार गुजरेगा। गुजर रहा है। असल में हथियारों के विक्रेताओं के लिए युद्ध से ज्यादा जरूरी युद्ध का माहौल है। माहौल बना रहेगा तो बिक्री होती रहेगी। डर के इस खेल में देश महज एक ईकाई है। जिसकी जितनी खरीद की क्षमता है, उसे डर उतना ही बड़ा बताया जाता है। इस बार इस डर को जमीन पर लाया जा रहा है। 
तो अब जब चार दिन से 42 जांबाज जवानों की शहादत के बाद बने माहौल में जुबानी जंग काफी तीखी रही है और हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उसमें कोई बड़ी बात नहीं कि जल्द ही हम एक जमीनी युद्ध के भी गवाह बनें। 
यह जरूरी है या नहीं?
युद्ध में जानें दोनों तरफ से जाती हैं?
युद्ध के बाद सूनी मांगें और यतीम बच्चों के सवालों का कोई जवाब नहीं होता?
या फिर 
जैसे को तैसा ही असली जवाब होता है?
आखिर एक बार में यह किस्सा खत्म हो ही जाना चाहिए?
42 जवानों की शहादत को बेकार नहीं जाने दिया जाएगा?
बदला जरूरी है, चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो?
इन सवालों के जवाब आप सभी अपने-अपने ढंग से दे सकते हैं, लेकिन फिलहाल एक बड़ा सवाल यह है कि इस दौर में फायदा किसका होगा?
मोदी सरकार का?
जो पहले ही तमाम तरह की उलझनों में घिरी हुई थी और राष्ट्रहित के नाम पर अब उसे कई सवालों से मुंह चुराने का मौका मिल जाएगा और यह भी संभव है कि इस हल्ले में वह अगले चुनाव में भाजपा के पक्ष में हालात बन जाएं। 
या कांग्रेस का?
जिसके लिए राष्ट्रहित में सरकार का समर्थन मजबूरी है और गाहे बगाहे वह भाजपा राष्ट्रहित को राजनीति से दूर करने की नसीहत के बीच अपने लिए जमीन तलाशेगी। 
क्षेत्रीय दलों का?
जो भाजपा-कांग्रेस की अब तक की कारगुजारियों के बलबूते अपने लिए बेहतर हालात बनने की राह देख रहे हैं। 
या अफसरशाही का?
जिसके लिए बाढ़, तूफान से लेकर किसी भी तरह की राष्ट्रीय आपदा या फिर युद्ध महज जेब भरने का एक और तरीका होता है। 
या मीडिया का?
जो बड़ी खबर और भावुक भारतीय जनमानस को बरगलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है
या देशविरोधी तत्वों का?
जो देश के भीतर बढ़ते खेमों का इस्तेमाल करने के लिए किसी भी छोटे मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते?
या फिर
उस हथियार लॉबी का जो पिछले एक साल से संकट के दौर से गुजर रही है और 1990 के बाद लगातार इस कोशिश में लगी हुई है कि दुनिया में एक बड़े युद्ध का माहौल तैयार हो। 
मेरा मानना है कि हथियार के सौदागर पाकिस्तान की माली हालत को देखते हुए कुछ हथियार मुफ्त मुहैया कराएंगे और अगर भारत के साथ युद्ध में वह कमजोर पड़ेगा तो युद्ध को लंबा खींचने के लिए और ज्यादा इमदाद भी कर सकते हैं। जबकि दोनों तरफ के हथियारों की कीमत को वसूला भारतीय पक्ष से ही जाएगा। 
इसके खिलाफ हम लिखें, बोलें, बात करें, एक दूसरे से झगड़ें, लेकिन यह सच्चाई है कि हम महज दर्शक हैं और असली खेल कहीं और से खेला जा रहा है। फेसबुक और ट्विटर पर महज इन हालात का फायदा अपने-अपने ढंग से उठाये जाने की कोशिशें भर हो रही हैं। 
अब फिर उसी गाय की कहानी पर… 
असल में तो हमारे घर की जरूरत को वह विक्रेता ही तय कर रहा है और हमारी आत्मनिर्भरता उसके धंधे में आड़े आती है।
इस पर फिर कभी कि क्यों अमरीका और रूस के बीच भारत को हथियार बेचने की होड़ है और दोनों चाहते हैं कि भारत उन्हीं से अपने हथियार खरीदे!
शुभ रात्रि
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