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Old Days: जाने कहां गए वह दिन!

सायरा खान

बात उस समय की है। जब मैं 10 साल का बच्चा था। मेरा नाम राजीव है, लेकिन प्यार से सब मुझे वुवु बोलते थे। मेरा बचपन गांव में बीता। मेरे गांव का नाम रैसलपुर है। वो होशंगाबाद जिले में आता है। मेरा गांव बहुत सुंदर था। चारों तरफ हरियाली, खुला आसमान, तालाब, नदी, गांव का चौपाल था। बड़े लोग उस चौपाल पर बैठते थे और आपस में बातें करते थे।

मां बड़े से आंगन में सबके साथ बैठकर खाना बनाती थी और हम सब खाना साथ बैठ कर खाते थे। बहुत मजा आता था। मां दाल-भात के साथ लहसुन की चटनी देती थी, जो बहुत स्वादिष्ट होती।

हम बच्चों की टोली पूरा दिन गांव में घूमती। मटरगश्ती करती थी। हम खूब खेलते थे। हम सबको खेलने में बहुत मजा आता था। सुबह मैं चिंटू, गोपाल और श्याम के साथ गिल्ली-डंडा खेलते थे। गिल्ली गुम होने पर आपस में झगड़ा भी हो जाता। जो गिल्ली गुमाता था, वही नई गिल्ली बना कर लाता था।

दूसरे बच्चों की टोली को भोरा जाली खेलना पसंद था। वह भोरा फिराते और हमें हाथ पर उठा कर देत थे। मैं बहुत खुश होता था, जब मेरी बहन मेरे हाथ पर भोरा देती थी। वह गोल-गोल घूमता और मैं उसे देखकर खुश होता था। जो हार जाता था, तो उसके भोरे पर सब अपने भोरे की कील से मारते थे और वह टूट जाता था। मैं कंचे छुपा कर रखता था और कोई मेरे साथ नहीं खेलता तो मैं एक साथी को बुलाता। फिर उसके साथ कंचे खेलता। कभी-कभी तो कंचे आठ आने में बेच भी देता था।

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वहीं लड़कियों की टोली भी कम नहीं थी। घर का काम करने के बाद सब सहेली को बुलाते और लंगड़ी खेलते। मेरे छोटे भाई-बहन गोला बनाकर चिड़िया उड़ खेलते थे। कभी-कभी तो हमारी बड़ी दीदी और भाभियां लड़कियों के साथ गेंद-पिट्टू खेलती थीं। कुछ लड़कियां रस्सी कूदती थीं।

मुझे आज भी याद है। मेरी दीदी जब चूड़ी वाला खेल खेलतीं थीं, तो एक कविता बोलती थीं। एक गड्ढे को खोल कर देखती थीं कि चूड़ियां उसमें हैं या नहीं। मुझे वह कविता बहुत अच्छी लगती थी। मैं आज भी उसे नहीं भूला और बच्चों को सुनाता हूं।

वह यह है-
अदरक-बदक चंपा
दिल में लगा घंटा
9 साल के नाले में
12 मिट्ठू बैठे थे
एक मिट्ठू उड़ गया
उसका साथी छूट गया
उठो सहेली आंखें खोलो
अपना साथी ढूंढ लो

शाम को हमारी दीदी सबको इकट्ठा करतीं और गोले में बैठा कर घोड़े पर छाई-छाई पीछे देखो मार खाई वाला खेल खिलाती थीं। बहुत मजा आता था। जब हम को मार पड़ती तो मैं भाग जाता था। जब दाम देने की बारी आती थी।

वहीं पर हमारी कुछ साथी बाजू में मूर्ति बनाने का खेल खेलते थे। और हम सब छोटे बच्चे उसे देखते थे। बहुत मजाक उड़ाते थे, उनके मूर्ति बनने पर। एक साथी बोलता था, जंगल में आग लगी दौड़ो-दौड़ो… भैया मूर्ति, यह शब्द सुनकर सब मूर्ति बन जाते थे।

रात में हमारी दादी हमें भूत, राजकुमारी और परी की कहानी सुनाती थीं। कभी-कभी मेरी मां लोरी भी गाती थीं, जिसे सुनकर मेरी छोटी बहन सो जाती थी।

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कितना मजा आता था। खेलने के लिए बहुत जगह हुआ करती थी, लेकिन जब मैं आज के बच्चों को देखता हूं तो सोचता हूं, कहां गया इनका बचपन। न, तो खेलने के लिए कोई मैदान है, और न ही वह पेड़ हैं जिस पर हम चढ़कर इमली तोड़ा करते थे।

आज के बच्चे छोटे से कमरे में रहते हैं। दो-तीन साल के बच्चे जब रोते हैं तो मां मोबाइल थमा देती हैं। अब तो बच्चों का खाना बिना मोबाइल को देखे नहीं होता है। या फिर बच्चे पूरा टाइम टीवी पर कार्टून देखते हैं। इनकी यही दिनचर्या बन गई है। वह जानते ही नहीं हैं कि बच्चों के असली खेल क्या हैं।

घर के बाहर खेलने से बच्चे स्वस्थ रहते हैं। मोबाइल पर जो बच्चे खेलते हैं, उनके आंखों की रोशनी कम हो जाती है। कई बच्चे तो ऊंचा सुनने लगते हैं, क्योंकि उनके सुनने की क्षमता कम हो जाती है। घर पर बंद रहने के कारण उन्हें शुद्ध वायु नहीं मिलती, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य अधिकतर खराब रहता है।

इस आधुनिक तकनीक के कारण हमारे बचपन के खेल लुप्त हो गए हैं और हमारा बचपन भी। आज मैं 50 वर्ष का हूं, लेकिन मुझे मेरे बचपन के खेल बहुत याद आते हैं। काश कोई लौटा दे मेरा हंसता खेलता बचपन।