Covid Tales: शहरों को चमकाने वाले मजदूरों के हिस्से से जीने-खाने का मौका भी छिना
निगहत खान
मजदूर ही शहरों को चमकाते हैं, लेकिन इनकी जिंदगी अंधेरे में घुट-घुटकर खत्म हो जाती है। न इनके काम को सम्मान मिलता है और न ही मेहनत के पैसे। सारा पैसा निर्माण करा रही कंपनियों के हिस्से में जाता है और फिर उनके नीचे काम करने वाले छोटे ठेकेदारों की जेब में। मजदूरों के हिस्से में महज कुछ नोट आते हैं, जिनसे जिंदगी के खर्चे पूरा करना मुश्किल होती है। लॉकडाउन ने काम बंद कर दिया है और अब इनके सामने जीने-खाने का संकट है। ऐसी ही एक महिला मजदूर की कहानी-
भोपाल के दसमेश नगर में रहने वाली रेनू 30 साल की हैं। उनके दो बेटियां और एक बेटा है। रेनू बताती हैं कि वो एक वंचित समुदाय से हैं। वो अपने पति के साथ दसमेश नगर की झुग्गी में रहती हैं। उनके पति रेत गाड़े का काम करते हैं। पति का कुछ समय पहले गर्म पानी से हाथ जल गया था, तो अब ज़्यादा काम नहीं कर पाते हैं।
रेनू (परिवर्तित नाम) भी रेत गाड़े का काम करती हैं। काम की तलाश में वो सुबह आठ बजे से निकल जाती हैं। वो अशोक गार्डन के चौराहे पर काम की तलाश में तीन से चार घंटे मज़दूरी मिलने का इंतज़ार करती हैं। ऐसे में उनको घंटो इंतज़ार करने के बाद काम मिलता है। कभी-कभी तो लंबे इंतज़ार के बाद भी उनको काम नहीं मिलता है।
रेनू बताती हैं कि जब कोई ठेकेदार उनको मज़दूरी के लिए लेकर जाता है तो वो अपने हिसाब से प्रति दिन की मज़दूरी तय करके ले जाता है। मजबूरी में वो ठेकादर की तय की हुई मज़दूरी के हिसाब से ही काम के लिए चली जाती हैं। उनके पास काम नहीं होता तो जितना पैसा मिलता है, उतने में ही काम करती हैं।
रेनू बताती हैं कि पूरे 30 दिन काम की तलाश में घंटो इंतज़ार के बाद सिर्फ 10 दिन ही उनके हाथों को काम मिलता है और प्रतिदिन दिहाड़ी के उनको कभी 200 रुपये मिलते हैं, तो कभी 300 रुपये मिलते हैं।
वो सुबह आठ बजे से लेकर रात के 10 से 12 बजे तक काम करती हैं। ठेकेदार ने काम पर आने का समय आठ बजे का रखा है। अगर किसी काम से थोड़ा लेट हो जाते हैं, तो उस दिन ठेकेदार काम की छुट्टी कर देता है और उस दिन कोई पैसा नहीं मिलता। काम पर जाने का समय तय है, लेकिन आने कोई समय तय नहीं है। 12-12 घंटे काम करना पड़ता है।
रेनू बताती हैं कि काम करने के लिए उनको दूर-दूर जाना पड़ता है। उनकी कोई बांधी हुई मज़दूरी नहीं है। 10 दिन अगर पुष्पा नगर में मज़दूरी मिलती है तो अगले 10 दिन की मज़दूरी सुभाष नगर में मिलती है। जिस जगह मज़दूरी के लिए जाते हैं, वहां का ठेकेदार सुकून से 10 मिनट खाने को भी नहीं देता है। बस जल्दी खाना खाओ और काम पर लग जाओ। कई बार तो पानी पीने का भी समय नहीं मिल पाता। ऐसे में दो मिनट सुकून से आराम मिलना तो बहुत बड़ी बात है।
अगर खाना खाने में 10 मिनट भी लगे तो ठेकेदार बहुत बातें सुनाता है। ताने देता है कि अगर आराम ही करना है या खाना ही खाना है, तो काम पर क्यों आती हो, घर पर ही आराम करो। काम से निकलने की धमकी देता है, इसलिए चुपचाप अपना काम करती हूं। किसी से बात नहीं करती, कि कहीं मुझे काम पर से निकाल न दे। वह इज़्ज़त से बात भी नहीं करता है।
सबसे बड़ी परेशानी मुझे खुले में शौच करने में होती है, क्योंकि काम की जगह पर कोई महिला टॉयलेट नहीं होता है। खुले में थोड़ा दूर जाकर शौच करना पड़ता है। हमेशा एक डर लगा रहता है। कई बार तो काम की जगहों पर खुली जगह भी नहीं होती है, तो मुझे और मेरे साथ की महिलाओं को कई बार गाड़ियों के पीछे छुपकर शौच के लिए जाना होता है।
इतने से पैसों के लिए मुझे 12-12 घंटे काम करना पड़ता है, ताकि मैं अपने घर की आर्थिक ज़रूरतों को और बच्चों की पढ़ाई और उनकी ज़रूरतों को पूरा कर सकूं। इतने से पैसों में महीने भर घर खर्च चला पाना कठनाइयों से भरा हुआ है। ऐसे में काम करना मेरी मजबूरी है, क्योंकि काम बराबर नहीं मिलता और काम मिलता है तो वो सुविधा नहीं मिलती और न काम के हिसाब से और मेहनत के हिसाब से पैसा मिलता है।
रेनू बताती हैं कि वो काम करने में पीछे नहीं हटती हैं और न मेहनत करने में। अगर उनको पूरे 30 दिन काम मिले और मेहनत के हिसाब से मज़दूरी तो वो अपनी और अपने बच्चों की ज़िंदगी में बदलाव ज़रूर ला सकती हैं। रेनू बताती हैं कि वो लॉकडाउन से ही छत्तीसगढ़ में अपनी मम्मी के घर रह रही हैं, क्योंकि लॉकडाउन लगा है तो काम मिलना या करना मुश्किल है। अगर वो यहां रहतीं तो भूख से मर जातीं क्योंकि बीमारी इंसान को बाद में मारेगी भूख उसको पहले ही मार देगी।