Akhand Bharat: अखंड भारत या दक्षिण एशियाई देशों का संघ
-राम पुनियानी
(Akhand Bharat) भारत का विभाजन दक्षिण एशिया के लिए एक बड़ी त्रासदी था. विभाजन के पीछे मुख्यतः तीन कारक थे – पहला, ब्रिटिश सरकार की फूट डालो और राज करो की नीति, दूसरा, हिन्दू साम्प्रदायिकता, जो भारत को हिन्दू राष्ट्र (Akhand Bharat) बनाना चाहती थी और तीसरा, मुस्लिम साम्प्रदायिकता, जो धर्म के आधार पर एक अलग देश, पाकिस्तान, की मांग कर रही थी. धर्म को राष्ट्र का आधार मानने के सिद्धांत के परखच्चे तब उड़ गए जब सन् 1971 में पूर्वी पाकिस्तान एक अलग देश बन गया. अविभाजित भारत के अधिकांश मुसलमान और हिन्दू, धर्म को राष्ट्र का आधार मानने के खिलाफ थे. इस विचार के दो प्रतिष्ठित प्रतिनिधि थे मौलाना अबुल कलाम आजाद और मोहनदास करमचंद गांधी.
हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों का मानना था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है. विभाजन के बाद से ही कई हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन और नेता यह कहते रहे हैं कि भारत से अलग होकर नए राष्ट्र बने पाकिस्तान और बांग्लादेश को फिर से भारत का हिस्सा बनना चाहिए. वे अपनी कल्पना के इस देश को ‘अखंड भारत’ (Akhand Bharat) कहते हैं. यह अखंड भारत(Akhand Bharat) , हिन्दू धर्म पर आधारित होगा. हाल में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने एक भाषण में कहा कि “हमें फिर से एक होना चाहिए, बल प्रयोग से नहीं बल्कि हिन्दू धर्म के आधार पर”. उन्होंने यह भी कहा कि “वे (अलग हुए देश) सारी कोशिशें कर चुके हैं परंतु उनकी समस्याओें का कोई समाधान नहीं हो सका है. इलाज एक ही है – (भारत से) एकीकरण. इससे उनकी सभी समस्याएं हल हो जाएंगीं”. उन्होंने जोर देकर कहा कि हिन्दू धर्म ही इस एकीकरण का आधार हो सकता है.
आरएसएस के सपनों के अखंड भारत (Akhand Bharat) में पाकिस्तान और बांग्लादेश के अलावा अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका और तिब्बत भी शामिल हैं. संघ का मानना है कि यह संपूर्ण क्षेत्र, हिन्दू सांस्कृतिक परंपराओं से ओतप्रोत रहा है और इसलिए एक राष्ट्र है.
त्रिपुरा के मुख्यमंत्री विप्लव देव ने हाल में एक भाषण देते हुए कहा कि भारत के सभी राज्यों में अपनी सरकार बनाने के बाद, भाजपा पड़ोसी देशों में भी अपनी सरकार बनाएगी.
अखंड भारत की अवधारणा से हिन्दू साम्प्रदायिकता की बू आती है. अखंड भारत (Akhand Bharat) के पैरोकारों का मानना है कि यह क्षेत्र हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है. हिन्दू धर्म को दक्षिण एशियाई देशों के एकीकरण का आधार बताना, इन लोगों की असली सोच को उजागर करता है. वे कहते हैं कि धर्म से उनका आशय हिन्दू धर्म से नहीं है. फिर धर्म क्या है? उनके अनुसार, धर्म व्यक्तियों के कर्तव्यों का निर्धारण करता है. इस सिलसिले में वे स्त्री धर्म, क्षत्रिय धर्म जैसे शब्दों का प्रयोग भी करते हैं. स्पष्टतः उनका मानना है कि समाज के विभिन्न वर्गों और महिलाओं को वही कर्म करने चाहिए जो परंपरा से उनके लिए निर्धारित हैं. यह सही है कि हिन्दू धर्म अन्य धर्मों से अलग है. परंतु यह कहना गलत होगा कि वह धर्म नहीं है. हिन्दू धर्म के अपने देव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश) हैं, अपने कर्मकांड हैं, अपनी पवित्र पुस्तकें हैं, अपना पुरोहित वर्ग है और अपने तीर्थस्थल हैं. क्या यह सही नहीं है कि हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा जिन मुद्दों को लेकर आंदोलन चलाए गए हैं वे सभी हिन्दू आराधना स्थलों (राम मंदिर), पवित्र प्रतीकों (गाय) और पहचान (लव जिहाद) से जुड़े रहे हैं.
यह भी कहा जाता है कि हिन्दुत्व धर्म न होकर एक जीवन पद्धति है. इस तर्क से तो हर धर्म को हम जीवन पद्धति कह सकते हैं. दरअसल, हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म के बीच के अंतर को समझना आवश्यक है. हिन्दुत्व राजनीति है और हिन्दू एक धर्म है जिसमें कई तरह की परंपराएं समाहित हैं.
अखंड भारत की परिकल्पना, वर्चस्ववादी प्रतीत होती है क्योंकि हिन्दू धर्म को उसका आधार बताया जा रहा है. हम जानते हैं कि धर्म-आधारित राजनीति ही भारत के विभाजन का कारण बनी थी. फिर धर्म अलग हुए देशों को एक करने का आधार कैसे बन सकता है? आज जिन देशों को कथित अखंड भारत (Akhand Bharat) का हिस्सा बनाने की योजनाएं बनाई जा रही हैं उन सबके अपने-अपने धर्म हैं. फिर वे हिन्दू धर्म को भारत का हिस्सा बनने का आधार क्यों मानेंगे? वैसे भी भारत संवैधानिक दृष्टि से एक धर्मनिरपेक्ष देश है. वह हिन्दू धर्म पर आधारित नहीं है. भागवत और उनके साथी जो कह रहे हैं उसके पीछे सहयोग की भावना से अधिक विस्तारवादी सोच है.
धर्म के आधार पर राष्ट्रों को एक करने की बजाए उनमें परस्पर सहयोग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र संघ, यूरोपियन यूनियन और सार्क इस तरह के सहयोग के उदाहरण हैं. राष्ट्रों को एक-दूसरे की स्वतंत्रता और संप्रभुता का सम्मान करते हुए परस्पर सहयोग करना होगा. एक राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र को अपने से नीचा नहीं मान सकता. समानता पर आधारित परस्पर सहयोग का एक बहुत अच्छा उदाहरण है यूरोपियन यूनियन.
सार्क, दक्षिण एशियाई देशों के बीच व्यापार-व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से जुड़े मुद्दों पर परस्पर सहयोग सुनिश्चित करने की अच्छी पहल थी. सार्क का आधार धर्म नहीं था और इसलिए वह कुछ हद तक इन राष्ट्रों के बीच शांति स्थापना में उपयोगी साबित हो सका. दुर्भाग्यवश सार्क इन दिनों निष्क्रिय है. परंतु दुनिया में राष्ट्रों के समूहों की सफलता से हम जो सीख सकते हैं वह यह है कि राष्ट्रों के बीच परस्पर सहयोग का आधार जनता का कल्याण और प्रगति ही हो सकता है.
यह दावा करना कि कोई इलाका हमारा है क्योंकि वहां पर हमारी नस्ल या हमारे धर्म के लोग रहते थे न केवल गलत है बल्कि इसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं.
इस दावे में भी कोई खास दम नहीं है कि जो देश भारत से अलग हुए हैं वे घोर परेशानियां झेल रहे हैं. बांग्लादेश बहुत तेजी से प्रगति की राह पर अग्रसर है और कई विकास सूचकांकों पर उसकी स्थिति भारत से कहीं बेहतर है. जहां तक अफगानिस्तान और पाकिस्तान का प्रश्न है, उनकी समस्याओं की जड़ धर्म नहीं बल्कि साम्राज्यवादी देशों की नीतियां हैं. साम्राज्यवादी देश किसी भी तरह से कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा जमाना चाहते हैं.
जिन देशों को कथित अखंड भारत (Akhand Bharat) का हिस्सा बताया जा रहा है वे निश्चित तौर पर एक मजबूत संघ बना सकते हैं जिसमें सभी समान हों और एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करें. उन्हें एक-दूसरे की परंपराओं और संस्कृति का भी सम्मान करना होगा. इससे ही दक्षिण एशिया का राजनैतिक और आर्थिक भविष्य बेहतर बन सकेगा. यह कहना कि इन देशों को भारत के पास लौट आना चाहिए और हिन्दू धर्म को उनके भारत का फिर से हिस्सा बनने का आधार होना चाहिए, विस्तारवादी और दंभपूर्ण सोच है. आज जरूरत इस बात की है कि सभी दक्षिण एशियाई देशों में प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक संस्थाओं को मजबूती दी जाए, पड़ोसियों को मित्र माना जाए और आपसी विवादों का हल शांतिपूर्ण चर्चा से निकाला जाए. इन देशों को शिक्षा, स्वास्थ्य व व्यापार के क्षेत्रों में परस्पर सहयोग करना होगा. यही दक्षिण एशिया को समृद्ध, विकसित और शांतिपूर्ण क्षेत्र बनाने का एकमात्र रास्ता है.
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)