भोपाल में प्रलेसं के दो दिवसीय कविता शिविर में तमाम प्रतिभागियों ने न केवल अपनी कविता को मांजना सीखा बल्कि कविता और वैचारिकी के रिश्ते को उन्होंने बारीकी से समझा।
संदीप कुमारआपाधापी और जल्दबाजी के इस दौर में जहां ठहरकर सीखने, समझने की प्रक्रिया धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेसं) की मध्य प्रदेश इकाई ने फरवरी 2017 में राजधानी भोपाल में युवा कवियों के लिए दो दिवसीय आवासीय कविता शिविर का आयोजन किया। इस शिविर में हिंदी के भिन्न-भिन्न इलाकों से आये कवियों ने शिरकत की। शिविर में आठ युवा कवि और पांच वरिष्ठ कवि लगातार दो दिन मौजूद रहे। इसके साथ ही कुछ युवा एवं वरिष्ठ कवियों का आनाजाना भी हुआ। शिविर का उद्देश्य था कि युवा कवियों की कविताएँ सुनी जाएँ और उन पर समुचित चर्चा और विश्लेषण के ज़रिए उनके अच्छे और बुरे पहलुओं पर गौर किया जाए। ज़ाहिर है इन कविताओं का ताक़त, संभावनाएँ और उनकी सीमाएँ भी इस चर्चा का हिस्सा होनी थीं और हुईं भी। यद्यपि इन्हीं तारीखों में इस्मत चुगताई पर नूर ज़हीर के बनाये नाटक में किरदार निभाने की वजह से रजनीश साहिल इस शिविर में शामिल नहीं हो सके लेकिन प्रतिभागियों के चयन का महत्त्वपूर्ण कार्यभार उन्होंने दिल्ली में बैठकर बखूबी निभाया।
शिविर के उद्देश्य और स्वरुप का परिचय शिविर संयोजक के नाते प्रलेसं की मध्य प्रदेश इकाई के महासचिव विनीत तिवारी ने दिया। उन्होंने प्रलेस द्वारा पूर्व में मांडव, साँची, अशोकनगर, सतना, गुना, इंदौर, कालाकुंड, मंदसौर और उज्जैन आदि स्थानों पर आयोजित इस तरह के रचना और विचार शिविरों की जानकारी दी और कहा कि आवासीय शिविरों से नए और पुराने कवियों के बीच संकोच समाप्त होते हैं और खुल कर बात हो पाती है। साथ ही पूरे वक़्त साथ रहने से साहित्य और संसार को समझने का माहौल कविताओं को अनेकानेक कोणों से देखने का अवकाश संभव करता है। उन्होंने पूर्व में लगाए गए शिविरों को याद करते हुए कहा कि आज के दौर के अनेक प्रमुख कवि शिविरों के बाद ही अपनी सही ज़मीन और पहचान हासिल कर पाए। ज्ञानरंजन, चंद्रकांत देवताले, कृष्णकांत निलोसे, राजेंद्र शर्मा और कुमार अम्बुज द्वारा आयोजित ऐसे ही एक मांडव शिविर से पवन करण, अनिल करमेले, विवेक गुप्ता, आशीष त्रिपाठी और स्वयं मैं कविता के दायरे में गंभीरता से शामिल हुए। उन्होंने शिविरार्थियों से अपेक्षा की कि जिस तरह हमने जो हासिल किया, उसे हम पिछले २० वर्षों से बाद वाली पीढी के कवियों को देने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही आप सभी को भी आगे ऐसे शिविर आयोजित करने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।
मुक्तिबोध को याद करते हुए वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज ने कहा कि साहित्य विवेक और जीवन विवेक अलग – अलग नहीं हैं। सभी के परिचय, जिसमे उनका साबका साहित्य से कैसे पड़ा, इसका ज़िक्र भी शामिल था, के बाद कुमार अम्बुज ने सभी शिविरार्थियों से प्रश्न किया कि दुनिया की उत्पत्ति के बारे में उनका क्या सोचना है? उनका ये सवाल भी उनसे दशकों पहले किसी शिविर में भगवत रावत जी या कमलाप्रसाद जी या मलय जी द्वारा पूछे गए सवाल की प्रासंगिक स्मृति थी। दरअसल यह सवाल इस शिविर की जमीन तैयार कर रहा था। सभी युवा कवियों ने दुनिया की उत्पत्ति और इस प्रकार ईश्वर की अवधारणा, उसकी सत्ता को लेकर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। इस प्रकार कविता, कवि और वैज्ञानिक चेतना के अंतर्संबंधों को लेकर एक विस्तृत चर्चा आरंभ हुई। कुमार अंबुज ने कहा कि एक कवि के लिए यह आवश्यक है कि वह वैज्ञानिक चेतना से पूरी तरह लैस हो। क्योंकि अगर कवि अपने आसपास की घटनाओं को वैज्ञानिकता की कसौटी पर नहीं कसता, उसे तर्कसंगत करके नहीं देखता और राजनीतिक समझ से संचालित नहीं होता तो उसकी कविता और उसका उद्देश्य इतना बड़ा नहीं हो पाएगा कि वह व्यापक समाज में अपने अनुभवों को सही ढंग से संप्रेषित कर सके।
चर्चा के दौरान धर्म, ईश्वरीय आस्था और अंध श्रद्घा को लेकर भी बातचीत हुई। इस चर्चा के अंत में लगभग सभी प्रतिभागी इस बात पर सहमत थे कि एकदम निर्दोष नजर आने वाली आस्था भी इस बात का जोखिम पैदा कर देती है कि जरूरत आने पर उसे अंधश्रद्घा में तब्दील करने की कोशिश की जाये। ठीक उसी तरह मुक्ति के धर्मशास्त्र (लिबरेशन थियोलोजी) के क्रांतिकारी इतिहास पर भी बात हुई।
चर्चा के उपसंहार के तौर पर विनीत तिवारी ने उरुग्वे के सुप्रसिद्घ लेखक एडुवार्डो गैलियानो के महत्त्वपूर्ण लेख ‘आखिर हम लिखते ही क्यों हैं?’ का पाठ किया। इस लेख में गैलियानो ने अपनी व्यक्तिगत रचना प्रक्रिया से जुड़े कुछ सवालों के जवाब दिए हैं जो कमोबेश हर लेखक से जुड़े होते हैं। मसलन वह लिखता क्यों है? लेखक की पक्षधरता के क्या मायने हैं, वह क्यों जरूरी है आदि। लेख पर हुई विस्तृत चर्चा ने युवा कवियों के मन की अनेक दुविधाओं को दूर किया और नए सवालों और नई बेचैनियों को पैदा किया।
इस तरह शिविर का पहला सत्र समाप्त हुआ। तब तक नए कवियों को ये समझ नहीं आ रहा था कि इस शिविर में कविता लिखना सिखाया जाएगा या नहीं। दोपहर के खाने के बाद दूसरा सत्र शुरू हुआ। हल्की सर्दी का वक़्त था और दोपहर की गुनगुनी धूप बाहर आमंत्रित कर रही थी। सभी लोग इस सत्र के लिए धूप में निकल आये। ये सत्र प्रतिभागी युवा कवियों की कविताओं का था। शिविर में आठ पूरा वक़्ती नए प्रतिभागी थे: दीपाली चौरसिया, मानस भारद्वाज, प्रज्ञा शालिनी, अल्तमश जलाल, पूजा सिंह, संदीप कुमार, अभिदेव आजाद और श्रद्घा श्रीवास्तव। पहले दिन दीपाली, मानस, प्रज्ञा शालिनी और अल्तमश जलाल ने अपनी कवितायें पढ़ीं। प्रत्येक कवि के कविता पाठ के बाद शेष सभी प्रतिभागियों ने इन कविताओं पर अपने विचार रखे। वरिष्ठ कवियों कुमार अंबुज, विनीत तिवारी, अनिल करमेले, रवींद्र स्वप्रिल प्रजापति और आरती ने इन कविताओं की खूबियों और खामियों पर चर्चा की। इस दौरान कविताओं के बिंबों, कुछ कविताओं में बार-बार आ रहे नॉस्टैल्जिया यानी अतीत मोह समेत तमाम छुए-अनछुए पहलुओं पर व्यापक बातचीत हुई। कुमार अंबुज ने कहा कि नॉस्टैल्जिया को केवल छूकर गुजर जाना कोई मायने नहीं रखता। हम सभी की जड़ें कहीं न कहीं हैं और हम सभी अपने अतीत को याद करते हैं लेकिन एक कवि के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह उन यादों में क्या लेकर जाता है और वहां से पाठक के लिए क्या लेकर आता है। कविता में लयात्मकता और कविता की आतंरिक लय के बीच के अंतर को समझने की भी कोशिश हुई। यह सत्र निश्चित रूप से अत्यंत समृद्ध रहा और इसने कवियों को कविता को पढऩे, समझने और उसके विश्लेषण की दृष्टि विकसित करने का अवसर प्रदान किया। अनिल करमेले ने कहा कि किसी की कविताओं में नास्टैल्जिया बहुत प्रखरता से आया था लेकिन वो आगे नहीं निभ सका। किसी की कविता में विचार तो अच्छा था लेकिन वो कविता में ठीक से नहीं आ पाया। किसी की कविताओं में आत्मदया उसी तरह असमानुपाती थी जैसे कभी कभी कुछ कविताओं में अनावश्यक आत्म गौरव जाता है। अस्मिता की राजनीति जीवन दर्शन और साहित्य को किस तरह प्रभावित करती है, ये बात भी हुई। इस बात पर ज़ोर दिया गया कि तारीफ़ एवं विश्लेषण का विवेक भी होना चाहिए अन्यथा कवि के भीतर सुधार की संभावनाएँ विरल हो जातीं हैं।
युवा कवयित्री दीपाली ने माना कि उनके लिए कविता अब तक केवल अपने मनोभावों को प्रकट करने का जरिया भर थी। शिविर में आने के बाद उनको पता चला कि कविता का एक शिल्प होता है और वैज्ञानिकता से कविता का कितना गहरा नाता है। युवा कवि मानस भारद्वाज ने कहा कि कविता शिविर में हिस्सेदारी ने एक साथ कवि और श्रोता होने की जो सुविधा प्रदान की वह अन्यत्र नहीं मिल सकती। यह एक ऐसी स्थिति है जहां आप अपनी कविताओं की प्रत्यक्ष आलोचना सुनने की स्थिति में होते हैं। यह सुधार की इच्छा रखने वालों के लिए बहुत बेहतर बात है।
शाम की चाय के बाद फिर हॉल के भीतर इकठ्ठा होकर कविताएँ और उन पर बातचीत शुरू हो गई। कुछ साथियों ने अपनी पसंद के कवियों की कवितायेँ सुनाईं और उन कविताओं पर चर्चा भी हुई। रवींद्र स्वप्निल प्रजापति, अनिल करमेले और आरती ने अपनी कुछ कविताएँ सुनाईं जिन पर नए कवियों सहित सभी प्रतिभागियों ने अपनी अपनी समझ से टिप्पणी की।
लगभग रात दस बजे शिविर के पहले दिन का औपचारिक समापन हुआ और अनौपचारिक तौर पर फिर शिविर में कविताएँ और उन पर बातचीत, एक-दूसरे के साथ परिचय के दो-चार कदम रात 2-3 बजे तक बढ़ते रहे। शिविर में इंदौर के कलाकार अशोक दुबे के कविता पोस्टर्स की प्रदर्शनी भी लगाई गयी।
शिविर के दूसरे दिन के प्रथम सत्र की शुरुआत में विनीत तिवारी ने कविता शिविर के महत्त्व के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि कविता और साहित्य दोनों प्रतिरोध के उपकरण हैं। कविता केवल कुछ कहने के लिए नहीं की जानी चाहिए बल्कि उसमें गलत का विरोध करने, उसे परास्त करने और सही सामाजिक व्यवस्था लागू करने की भावना भी होनी चाहिए। साहित्य और कला वैसे तो कभी स्वान्तः सुखाय नहीं कही जा सकती थी क्योंकि उसकी सदा ही एक सामाजिक भूमिका रही है लेकिन आज तो वो मनुष्यता के पक्ष में खड़े लोगों के प्रतिरोध का भी अस्त्र है इसलिए उसे सिर्फ भाषा या व्याकरण से ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझना और बरतना होगा। ये कविता को उपयोगितावाद के नज़रिये से देखना नहीं है बल्कि कविता को जीवन की गतिविधियों में रचाना बसाना है।
मौजूदा वर्ष हिंदी के महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मशताब्दी वर्ष भी है। वह हमारी भाषा के एक ऐसे कवि हैं जिनके जिक्र के बिना हिंदी भाषा की कविता का कोई भी सिलसिला अधूरा ही रह जायेगा। यही वजह है कि शिविर के दूसरे दिन का प्रथम सत्र मुक्तिबोध को समर्पित किया गया। उन्होंने मुक्तिबोध को याद करते हुए कहा कि सबकुछ राजनीति के भीतर होता है और हमें ये समझना चाहिए कि हमारी रचना किसके पक्ष में रही है और उसे किस राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
मुक्तिबोध ने हर सामान्य मनुष्य और हर जागरूक मनुष्य से अपनी कविता में अपना राजनीतिक पक्ष साफ़ करने की बात की है। जैसे जैसे हम साहित्य की समाज में भूमिका को समझते जाते हैं, हमारी चुनौती और जि़म्मेदारी बढ़ती जाती है। तब साहित्य मात्र मनोरंजन नहीं रह जाता बल्कि वो बेहतरी के लिए संघर्ष का हिस्सा बन जाता है।
इस सत्र में विनीत तिवारी ने मुक्तिबोध के लेख “जनता का साहित्य किसे कहते हैं” का पाठ किया। इस पाठ के पश्चात तमाम प्रतिभागियों ने लेख के कथ्य पर चर्चा की। इस पाठ का निष्कर्ष यही निकला कि जनता का साहित्य वह साहित्य है जो उसके जीवन की समस्याओं को संबोधित कर सकता है और उनका हल निकालने में हमारी मदद कर सकता है। मनुष्यता को बचाये रखने और मानवता को मुक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा इसी साहित्य से मिलती है। कुमार अंबुज ने कहा कि मुक्तिबोध ने जीवन विवेक को ही साहित्य विवेक कहा था और आज भी वह पैमाना बदला नहीं है बल्कि अपनी जगह पर मौजूद है।
शिविर के दूसरे दिन का दूसरा सत्र एक बार फिर युवा कवियों के कविता पाठ का था। पहले दिन के शेष प्रतिभागियों श्रद्घा श्रीवास्तव, अभिदेव आजाद और संदीप कुमार ने दूसरे दिन अपनी कवितायें सुनाईं। इन कविताओं में भी नॉस्टैल्जिया, आकांक्षाएं और कामनाएं बार-बार आईं। कुमार अंबुज, विनीत तिवारी, अनिल करमेले, आरती ने युवा कवियों की कविताओं पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। इसके अलावा शिविर में मौजूद अन्य साथियों दीपक, पूजा, मनु आदि ने भी इन कविताओं पर अपनी राय रखी। दूसरे दिन भी कविताओं पर टिप्पणी के बहाने कविता लेखन के अलग-अलग पहलुओं को छुआ गया। इस दौरान तुकांत और अतुकांत कविता, कविता में लयात्मकता, उसके बिंब विधान आदि पर विस्तार से चर्चा हुई। वरिष्ठों की राय में संदीप की कविता में एक परिपक्व विचार तो दिखा लेकिन वो जल्दबाज़ी का शिकार होकर जल्दी ख़त्म हो गया। अभिदेव आज़ाद की कविताएँ अपने आपको एक नए और अछूते शिल्प और भाषा में व्यक्त करती हैं लेकिन उनकी कविताएँ जीवन दृष्टि, जीवनानुभव और प्रगतिशील मूल्यबोध की मांग करती हैं। श्रद्धा की कविताएँ धीर – गंभीर हैं, उनमें विचार भी समृद्ध है लेकिन उन्हें नयी कविता की भाषा और मुहावरे को पकड़ने का प्रयास करना होगा।
इस दौरान एक बात जिस पर आम सहमति बनी वह यह थी कि कुछ भी लिखने से पहले हमें मोटे तौर पर यह जानकारी अवश्य होनी चाहिए कि हमसे पहले के लोगों ने क्या-क्या लिखा है। इससे भी बढ़कर यह जानना जरूरी है कि कि हमसे पहले के लोगों ने क्या अच्छा और क्या चुनौतीपूर्ण लिखा है? सच यही है कि एक कवि अथवा साहित्यकार अपने कहने का तरीका, विषयवस्तु और जिस भाषा का वह इस्तेमाल करता है उसका चुनाव केवल अपने समय से ही नहीं करता बल्कि वह अपने पूववर्ती लेखकों को पढ़ते हुए भी उनसे लगातार सीखता रहता है।
चर्चा के दौरान वरिष्ठ साथियों ने युवा मित्रों को कुछ नाम भी सुझाए जिनको पढऩा उन्हें और अधिक परिष्कृत करेगा। जिन देशी-विदेशी रचनाकारों के नाम लिए गए वे हैं: रसूल हमजातोव, चांगीज आइत्मातोव, मक्सिम गोर्की, हावर्ड फ्रास्ट, फ्योदोर दोस्तोयेवस्की, लेव तॉल्सतॉय, मिखाइल शोलोखोव, पाब्लो नेरुदा, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, शरतचंद्र, रेणु, हरिशंकर परसाई, प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल, पाश आदि शामिल थे। जिन प्रमुख रचनाओं का नाम सामने आया वे हैं: मेरा दागिस्तान, पहला अध्यापक, मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय, जीवन की राहों पर, आदि विद्रोही, मां, अपराध और दंड, समकालीन यूरोपीय कविता, अन्ना केरनिना, धीरे बहो दोन रे, रिल्के के खत, धरती धन न अपना, एक साहित्यिक की डायरी, आत्महत्या के विरुद्घ, राग दरबारी, चरित्रहीन, मैला आंचल, सदाचार का ताबीज, मुर्दाघर, कर्मभूमि आदि। ऐसा भी नहीं था कि शिविर केवल निर्धारित सत्रों में ही चला। औपचारिक सत्र तो कायदे के मुताबिक चले ही। उनके समापन के बाद भी प्रतिभागियों का उत्साह और जिज्ञासा कम नहीं हुए। ऐसे में चाय पीते हुए, खाना बनाते-खाते हुए और यहां तक कि भोजनोपरांत देर रात टहलते हुए भी युवा और वरिष्ठ कवियों का आपसी संवाद जारी रहा। लब्बोलुआब यह कि कहने को चार-पांच सत्रों वाला यह शिविर दरअसल 48 घंटों की एक संपूर्ण कार्यशाला में बदल गया था जिसका अंत आते-आते वरिष्ठ और युवा साथियों के बीच के संकोच और दूरी बरतते सम्मान की जगह आपसी स्नेह और करीबी ने ले ली। और जिस प्रेम और सम्बंधों की ऊष्मा के घर में ये हुआ, उस घर की दीवारें भी लंबे अरसे के लिए कविताओं में सराबोर हो गईं।