निडरता की ओर छोटी-सी यात्रा
11 लेखकों ने की कर्नाटक और महाराष्ट्र के
शहीद लेखकों के गृह नगर की यात्रा
08 दिन में 3 राज्यों के लेखकों,
संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं से
मिला प्रगतिशील लेखक संघ का दल
वाला सच लिखना तो बड़ी बात है ही। बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने लिखा था –
इसी क्रम में ‘मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ’ ने ग्यारह चयनित सदस्यों का दल बनाकर इन लेखकों के विचारों पर हुए कट्टरवादी हमले और अब तक इनके हत्यारों के पकड़े न जाने की न्यायिक शिथिलता के प्रति अपना असंतोष व लेखक परिवारों और उनके साथ न्यायिक लड़ाई लड़ रहे, उनके सहयोगियों के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करने के लिए शहीद लेखकों के गृहनगरों की यात्रा का आठ दिवसीय कार्यक्रम बनाया। यह कार्यक्रम इस तरह नियोजित किया गया कि इसमें हम इन लेखकों के परिजनों से भेंट के साथ-साथ ऐसे मोर्चों और व्यक्तियों से मिलने का अवसर भी पा सकें जो जनसंघर्षों में या किसी न किसी तरह सृजनात्मक तरह से एक बेहतर मानवीय संस्कृति के निर्माण की कोशिशों में जुटे हुए हैं।
म.प्र. प्रलेस के ये सभी पदाधिकारी और सदस्य अलग-अलग जिलों से पुणे में 14 फरवरी को इकट्ठे हुए। इकट्ठे होने की जगह रेलवे स्टेषन भी हो सकती थी लेकिन तय की गई जगह थी महाराष्ट्र की ही नहीं देश भर की प्रमुख अर्थशास्त्री, आंदोलनकारी और विचारवंत लेखिका और हाल ही में दिवंगत डाॅ. सुलभा ब्रह्मे द्वारा बनाई ‘लोकायत’ नामक संस्था का कार्यालय। वहाँ पुणे के ही एक अन्य सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अमित नारकर ने हमें ‘लोकायत’ संस्था के कार्यों व संगठन की जानकारी दी। शुरुआत से ही हमारा समूह खामोषी से एक अध्ययन दल में बदल गया। लोकायत के कार्यों को जानते और सुलभा ब्रह्मे जी के बारे में जानते-समझते ये एहसास भी हुआ कि ऐसे ज़रूरी लोगों के बारे में भी हम कितना कुछ नहीं या न के बराबर ही जानते हैं। ये ख्याल भी आया कि दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के बारे में भी हिंदी का संसार आमतौर पर तब तक नहीं ही जानता था जब तक कि वे शहीद हो जाने की वजह से सभी जगह चर्चित नहीं हो गए।
मैत्रबन |
भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे |
पहले महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक ‘साने गुरूजी’ द्वारा आरंभ किया गया था और आज तक सतत यह वैज्ञानिक चेतना और समाजवादी विचारों के प्रसार में संलग्न है। इसमें म.प्र. प्रलेस द्वारा की जा रही यात्रा के उद्देश्य को पुणे के लेखकों, विचारकों, समाजसेवियों एवं पत्रकारों तथा अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति (अनिस) के कार्यकर्ताओं के बीच साझा किया गया। इस बैठक में 93 वर्षीय काॅमरेड शांता ताई रानाडे (वरिष्ठ सीपीआई नेता व गोविंद पानसरे की राजनीतिक सहयोगी, पिछले साठ सालों से राजनीतिक तथा वैचारिक मोर्चों पर सक्रिय), एस.पी. शुक्ला (वरिष्ठ विचारक, पूर्व सदस्य योजना आयोग, पूर्व वित्त एवं वाणिज्य सचिव), लता भिसे (भारतीय महिला फेडरेशन की राज्य नेत्री), मिलिंद देशमुख (अनिस कार्यकर्ता), नंदिनी जाधव (अनिस कार्यकर्ता), नीरज (लोकायत), अहमद शेख (थियेटर कलाकार), दीपक मस्के (अंबेडकरवादी विचारक और प्रलेस, पुणे), माओ भीमराव (प्रलेस, महाराष्ट्र) एवं अपर्णा, जहाँआरा, शैलजा, रुचि भल्ला, राधिका इंग्ले, सुनीता डागा के साथ ही अनिस, प्रलेस एवं थियेटर से जुड़े कई युवा भी उपस्थित थे। लेखिका राधिका इंग्ले तो देवास से अपने किसी अन्य कार्यक्रम में पुणे आई थीं। उन्हें दस्तक वाट्सअप समूह से इस बैठक की जानकारी मिली तो वे आ गईं। इसी तरह लेखिका रुचि भल्ला पुणे से 110 किमी दूर स्थित फलटण शहर से इस बैठक की जानकारी पाकर इस लोभ में भी आई थीं कि यहाँ उन्हें हिंदी सुनने को मिलेगी जो उन्होंने फलटण रहते 3 महीनों से नहीं सुनी थी। हमारे दल के वरिष्ठ साथी हरनाम सिंह जी ने म.प्र. प्रलेस के सांगठनिक ढांचे और कार्यों का विस्तृत परिचय दिया एवं कहानीकार दिनेश भट्ट ने यात्रा का उद्देश्य साझा किया। हरिओम राजोरिया एवं शिवशंकर शुक्ल ‘सरस’ ने कुछ कविताओं का पाठ भी किया। मराठी के कवियों का भी कवितापाठ हुआ।
इस बैठक की विशेषता कट्टरवाद एवं अन्य सामाजिक मुद्दों पर हुई चर्चा थी। आज की परिस्थिति में फासीवाद ताकतों के खिलाफ सभी को एकजुट होकर उनका प्रतिकार करना चाहिए, यह समय की आवश्यकता है, इस बात पर सभी ने जोर दिया। एस. पी. शुक्ला ने हमें महाराष्ट्र की तर्कशील परंपरा और संत साहित्य के भीतर मौजूद रही मानवतावादी धारा का तथा काॅमरेड गोविंद पानसरे द्वारा शिवाजी को हिंदू राजा की चैखट से बाहर निकालने के तथा उनके व्यक्तिगत जीवन के मार्मिक प्रसंगों से संक्षेप में परिचित करवाया।
फिल्म निर्देशक क्रांति कानाडे के घर |
सतारा में |
क्रिस्टोफर व शांति |
अगले दिन 17 फरवरी को गोवा के प्रसिद्ध स्थल ‘कला सांस्कृतिक भवन’ में गोवा के लेखकों, समाजसेवकों एवं पत्रकारों के साथ एक बैठक हुई जिसमें साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त लेखक डाॅ. दत्ता नाईक, दिलीप बोरकर, रजनी नैयर (हिन्दी और कोंकणी की लेखक), चितांगी नमन (कवि, युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त), महेश, प्रभु देसाई एवं अन्य प्रतिष्ठित लोग भी मौजूद थे। सभी ने गोवा के ऐतिहासिक-राजनीतिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लेखकों की हत्याओं के विरोध में गोवा के 30 लेखकों ने अपने सम्मान शासन को वापस किए
(इसमें राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय सम्मान शामिल हैं)। इस बैठक का मकसद गोवा के साहित्यकारों से गोवा के उस पहलू को जानना था जो आमतौर पर पर्यटक के तौर पर आने वाले कभी जान नहीं पाते। गोवा का मुक्ति संग्राम, वहाँ के भौगोलिक और सामाजिक-राजनीतिक इतिहास को जानने के लिए गोवा के ही विद्वानों को सुनना हम लोगों ने तय किया था और यही किया भी।
‘पिलार सेमिनरी म्यूजियम’ |
शाम को हम प्रसिद्ध ‘पिलार सेमिनरी म्यूजियम’ को देखने गए। वहाँ फादर काॅस्मे जोस कोस्टा ने म्यूजियम में गोवा की ऐतिहासिकता से संबंधित बारीक जानकारियाँ दीं एवं वहाँ के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से मुलाकात भी करवाई।
‘द पलोटी इंस्टीट्यूट आॅफ फिलाॅसफी एवं रिलीजन’ में |
धारवाड़ में प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की पत्नी उमादेवी, प्रो. गणेश देवी व अन्य के साथ |
धारवाड़ पहुँचकर सीधे हम ‘दक्षिणायन संस्था’ की ओर से आयोजित ‘सोशल मीडिया वर्कशाप’ का हिस्सा बने। यहाँ पर प्रसिद्ध समाजसेवी और लेखक प्रो. गणेश देवी मौजूद थे। साथ ही उनकी पत्नी सुलेखा जी और कर्नाटक के विभिन्न हिस्सों से आये जाने-माने लेखक, कवि, पत्रकार, समाजसेवी और शोधार्थी-विद्यार्थी भी। यहाँ पर जानकारी देना आवश्यक है कि ‘दक्षिणायन संस्था’ प्रो. गणेश देवी एवं अन्यों के प्रयास का वह प्लेटफार्म है जो फासीवाद के बरअक्स लोगों को एक साथ, एकजुट करने का प्रयास कर रहा है। प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की हत्या की न्यायिक लड़ाई कर्नाटक के जागरुक लेखक, पत्रकार, समाजसेवी नागरिक मिलकर लड़ रहे हैं। प्रो. गणेश देवी ने हमें दक्षिणायन का सविस्तार परिचय कराया। हमारे साथियों के परिचय के बाद, चाय के दौरान सोशल मीडिया वर्कशाप में आये सभी प्रतिभागियों के साथ हमारे दल का लंबा फोटोसेशन चला जो हमारी यात्रा के उद्देश्य एवं प्रतिरोध के साथ खड़े होने के संकल्प की टिप्पणियों के साथ सोशल मीडिया के सभी प्लेटफाॅर्मों (फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप, इंस्टाग्राम, गूगल) पर छाया रहा और अभी भी उपलब्ध है। यहीं पर प्रसिद्ध माक्र्सवादी चिंतक और जाने माने समाजसेवी एस. आर. हिरेमठ जी से मुलाकात हुई। वे बस बाहर जाने से पहले हमसे मिलने के लिए ही इंतज़ार में रुके हुए थे। हिरेमठजी अनेक वर्षों से आदिवासियों के हक़ों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खि़लाफ लड़ाई लड़ रहे हैं और कर्नाटक के खनन माफिया की रीढ़ पर प्रहार करने के लिए वे देशभर में जाने जाते हैं। यह प्रो. कलबुर्गी का सत्य व ज्ञान से अर्जित स्थान है कि सभी लेखक और अन्य उनके बाद भी उनके सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं।
धारवाड़ में हम आनंद करंदीकर और अरुंधति से भी मिले जो लेखकों को सोशल मीडिया के सार्थक और उद्ेश्यपूर्ण उपयोग की जानकारी दे रहे थे। यहाँ हमने शंकर गुहा नियोगी (छत्तीसगढ़ में पूँजीपतियों और माफियाओं के गठजोड़ ने जिनकी हत्या 28 सितंबर 1991 को कर दी थी) पर बनाई फिल्म और एक अन्य लघु फिल्म भी जिसमें वेलेन्टाइन डे पर बजरंग दल के लोगों द्वारा युवाओं पर लाठियाँ बरसाने के प्रतिरोधस्वरूप प्रेम के गहरे और विषद अर्थों को उठाया गया था, देखी। हिरेमठ जी के सहयोगी इकबाल पुल्ली जी ने हमें कर्नाटक के भीतर चल रहे विभिन्न जनांदोलनों की जानकारी भी दी। उन्होंने हमें ‘समाज परिवर्तन समुदाय’ के कार्यालय का भ्रमण भी कराया जो हिरेमठ जी के क्रांतिकारी कार्यों की जमीन है। यहाँ आते-आते हमें लगने लगा था कि हम अपने पड़ोसी राज्यों, उनके लोगों और उनके संघर्षों के बारे में कितना कम जानते हैं और कैसे मुख्यधारा मीडिया हमें न जानने देने की साजिशें रचता है। हमारी यात्रा का उद्देश्य विस्तृत हो गया था। हम नई बातें सीख रहे थे और अपने कार्यक्षेत्र में नये कामों को करने की प्रेरणा से भर रहे थे।
धारवाड़ से चलकर शाम होते-होते हम कोल्हापुर में थे। यहाँ प्रो. मेघा पानसरे (काॅमरेड गोविन्द पानसरे की बहू) और उनके बेटे कबीर और मल्हार से बेहद आत्मीय मुलाकात हुई।
माॅर्निंग वाॅक |
एन.डी. पाटिल |
इस
‘निर्भय माॅर्निंग वाॅक’ रैली का प्रतिनिधित्व एन.डी. पाटिल (सुविख्यात माक्र्सवादी विचारक और समाजसेवी) ने किया। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा कि – यह रैली चुनौती है हत्यारों को और उन्हें बचाने सत्ता में बैठे लोगों को कि हम भयभीत नहीं हैं।वहाँ से लौटकर हमने काॅमरेड पानसरे की पत्नी उमादेवी से उनके घर आकर मुलाकात की।
इसके बाद हमारी बैठक काॅमरेड पानसरे द्वारा स्थापित ‘श्रमिक प्रतिष्ठान’ के कार्यालय में हुई। वहाँ काॅमरेड दिलीप पवार, काॅमरेड एस. बी. पाटिल और काॅमरेड पानसरे के अन्य सहयोगियों और साथियों ने पानसरे जी के जीवन, उनके कार्यों, संघर्षों और निर्भयता के साथ मंजिल पाने तक डटे रहने की क्षमताओं और कार्यप्रणाली पर प्रकाश डाला।
काॅमरेड पानसरे के घर |
किसी महान व्यक्तित्व के जीवन और उनके कामों से जुड़ी छोटी-छोटी बातें भी बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं और वे एक न देखे
, न मिले हुए व्यक्ति को भी आपके सामने ला खड़ा करती हैं। इस बातचीत के दौरान ऐसा ही महसूस हो रहा था। पानसरे जी की लिखी पुस्तकें ‘शिवाजी कौन है?’ और ‘राजर्षि शाहू की शिक्षा नीति’ पुस्तकें भी उन्होंने हमें भेंट में दीं। एक ख़ास बात और देखने को मिली कि कार्यालय में काॅमरेड पानसरे जिस कुर्सी पर बैठते थे, वह दो साल बाद आज भी उनकी याद में खाली रखी गई है।मेघा जी ने हमें कोल्हापुर विश्वविद्यालय में भ्रमण का अवसर भी दिया। वे ‘रूसी अध्ययन’ विभाग की प्रमुख भी हैं। उनके विभाग में ही बैठकर थोड़ी देर बातचीत कर, मेघा जी के बताए अनुसार हमने मराठी के विख्यात साहित्यकार ‘विष्णु सखाराम खांडेकर स्मृति संग्रहालय’ का भ्रमण भी किया। यहाँ करीने से सँजोई कवि की स्मृतियों के प्रतीकों ने एक बार फिर हमारे प्रदेश के कवियों की याद दिलाई। हमारे खाते में जो सुभद्रा कुमारी चैहान, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिशंकर परसाई जैसे अनेक नाम हैं लेकिन इस तरह से सँजो सकने का हुनर नहीं। किसी साहित्यकार का वि.वि. में इतना सम्मानजनक स्थान पाना, हम लोगों के लिए अत्यंत सुखद अनुभव था। सिर्फ संग्रहालय ही नहीं, विश्वविद्यालय में जहाँ-तहाँ दीवारों पर भी मराठी साहित्यकारों के ‘मूल्य वाक्य’ सूक्तियों के रूप में तस्वीरों के साथ दिखे।
को हमारे साथियों हरिओम राजोरिया, सीमा राजोरिया, तरुण गुहा नियोगी, हरनाम सिंह, राजेन्द्र शर्मा और विनीत तिवारी ने गाकर की।
हमीद दाभोलकर ने अपने उद्बोधन में स्पष्ट रूप से कहा कि – तीनों ही शहीदों के हत्यारे ‘सनातन धर्म संस्था’ और ‘हिंदू जन जागरण समिति’ से हैं और प्रमाणों के बावजूद वे खुले घूम रहे हैं। प्रलेस महासचिव और म.प्र. प्रलेस लेखक यात्रा दल के मार्गदर्शक विनीत तिवारी ने देश में दिनोंदिन बढ़ते कट्टरवाद व विचारों पर हमले के अन्य उदाहरणों को सामने रखते हुए जोर देकर कहा कि एक लेखक या एक अकादमिक विद्वान के भीतर अनेक पुस्तकों का निचोड़ और सदियों की संचित ज्ञान निधि होती है। अगर राज्य नागरिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाता तो हम नागरिक ऐसे राज्य से लोकतंत्र की रक्षा करने के एपाय अपनाएँगे लेकिन हम अब और किसी को भी खोने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हमें इस यात्रा के अनुभवों ने और भी अधिक निर्भीक, मजबूत और ज़िम्मेदार बनाया है।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रतिष्ठित पत्रकार निखिल वागलेे ने सत्ता के इशारों पर काम करने में लगी पुलिस मशीनरी के एक और पहलू को उजागर करते हुए वह नोटिस जो पुलिस की तरफ से कार्यक्रम में आने से पूर्व उन्हें दिया गया, जिसमें लिखा था कि वे पानसरे स्मृति के कार्यक्रम में किसी व्यक्ति या संस्था का नाम लेकर आरोप नहीं लगाएँगे और ऐसा कुछ भी नहीं कहेंगे जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाए, अन्यथा उन्हें पुलिस गिरफ़्तार कर सकती है। ऐसा ही नोटिस आयोजकों को भी दिया गया था। ढेर सारे पुलिस वाले अधिकारी, कर्मचारी, थानेदार और सिपाही कार्यक्रम स्थल पर हाॅल के अंदर-बाहर मंडरा रहे थे। निखिल वागले ने मंच से पुलिस, प्रशासन और सत्ताधीशों को करारा जवाब देते हुए कहा कि उन्हें किन लोगों की भावनाओं की चिंता है। वे ऐसे नोटिस हत्यारों को पैदा करने वाली संस्थाओं और समितियों को क्यों नहीं देते जो विचारों को स्थापित करने के नाम पर हत्या करने, हुड़दंग मचाने का काम करते हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की मंच से आलोचना करते हुए कहा कि वो महाराष्ट्र में लोकतंत्र को क्या मजाक बना देना चाहते हैं?
अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. गणेश देवी का वक्तव्य हुआ। उन्होंने कहा कि- आज के हालात अघोषित आपातकाल जैसे ही हैं। केन्द्र सरकार हर क्षेत्र में स्वतंत्र विचारों का विरोध लाठी डंडे के साथ करती है। उन्होंने एफटीआईआई, चेन्नई के आंबेडकर, फुले और पेरियार के विचारों पर मनन करने वाले चेन्नई स्टडी सर्कल, जेएनयू, रोहित वेमुला और नजीब को याद करते हुए कहा कि विचार को गुलाम बनाने की कोशिशें कामयाब नहीं होंगी। उन्होंने कहा कि देश में ही नहीं दुनियाभर में फासीवादी प्रवृत्तियाँ उभर रही हैं और ये मानवता के लिए खतरा हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत फासीवाद विरोधी विचारों, व्यक्तियों और संगठनों के एकजुट होकर कट्टरपंथियों का प्रतिरोध करने की है।
कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मेघा पानसरे और अन्य साथियों से विदा लेकर और साथ रहने की प्रतिज्ञा को दोहराते हुए हम वापसी की ओर चल पड़े। हमारे कुछ साथियों ने सतारा स्टेशन से और कुछ ने पुणे से वापसी की राह पकड़ी। इस 14 से 20 फरवरी की यात्रा ने हमारे अनुभव संसार को बढ़ाया और विचारों की आजादी के लिए लड़ने के हमारे संकल्प को मजबूत किया। इस छोटी-सी यात्रा के बीच हम वैचारिक, सांगठनिक और अद्भुत समाहारी, प्रेरणादायी व्यक्त्तिवों से मिले। उनके कार्यों को जाना। समाज के लिए अड़े रहने की शक्ति और उससे हासिल की जा सकने वाली खुशी से भी परिचित हुए। इस यात्रा का खाका महासचिव विनीत तिवारी ने बनाया था। इस तरह की यात्रा की सोच उनकी वैचारिकता और देषभर में फैले उनके ज़मीनी संपर्कों का परिणाम है। यात्रा को उनके सांगठनिक और व्यक्तिगत सूत्रों, परिचयों और हर शहर में उनके अभिन्न मित्रों के सहयोग ने अधिक मूल्यवान बनाया। इन सात दिनों में हम सब शाम को अपने दिनभर के कार्यों, मुलाकातों और रोजमर्रा में नए-नए मिलने वाले अनुभवों पर चर्चा करते। कई बार कुछ मुद्दे अचानक आ जाते और घंटों साथियों के बीच उन पर बहसें होती रहीं। शिक्षा, साहित्य, रिश्ते, सामाजिक स्थितियों पर होने वाले विचार-विमर्ष और जनगीतों, शास्त्रीय संगीत से लेकर फ़िल्मी गाने तक सफ़र का हिस्सा बनते रहे। इस सफ़र के दौरान साथियों के बीच अनेक विषयों पर हुईं बेहद दिलचस्प चर्चाएँ और सोच के दायरों को विस्तृत करने वाली गर्मागर्म बहसें भी स्मृति में रहेंगी।
सात दिन तक लगभग 14 से 16 घंटे जिन साथियों के साथ गुजारे, उनके व्यक्तित्व के भी कुछ नये पहलुओं को जानने का मौका मिला। इतने दिनों तक कोई भी सिर्फ़ औपचारिकता का आवरण ओढ़कर नहीं रह सकता। बाहर के भले लोगों से हुई मुलाकात ने जहाँ हमें भी बेहतर बनाने का काम किया, वहीं अपने ही साथियों के साथ बने जीवंत और अनौपचारिक संपर्क ने एक संगठन के तौर पर भी हमें समीप किया। अपने साथियों पर लिखने का काम कभी अलग से।
हमारे 14 से 21 फरवरी की यात्रा के बीच हुए कार्यक्रमों की प्रेस, इलेक्ट्रानिक मीडिया, आॅनलाइन मीडिया और सोशल मीडिया पर छपी खबरें साथियों द्वारा अभी तक प्राप्त हो रही हैं। हमारे बाहर के देखे अनुभव खासकर मीडिया ने हमें उनकी तुलना अपने प्रदेश से करने पर बार-बार मजबूर कर देते हैं। गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में कार्यक्रमों के हुए विशद, विस्तृत, शुद्ध और ‘जैसा कहा गया वैसा ही लिखा गया’, इन कवरेजों ने मीडिया पर खोता जा रहा विश्वास फिर से जगा दिया। हम अद्भुत जीवट वाले निडर लोगों से मिले। यह सोच अधिक दृढ़ हुई कि विचार और तर्कशील कर्म का साथ देने और अन्याय का प्रतिरोध करने के निडरता और सच्चाई ही सच्चे हथियार हैं। इनकी ताक़त को हमने अलग-अलग रूपों में बहुत ही नज़दीक से महसूसा। इस पूरी यात्रा का उल्लेख विनोद के उल्लेख के बिना पूरा नहीं होता जो यूँ तो सिर्फ़ हमारे वाहन चालक थे लेकिन यात्रा समाप्त होते-होते वे हमारे साथी बन गए। इससे हमारा ये विश्वास भी पुख्ता हुआ कि अगर हम अपने विचार योजनाबद्ध रूप में आम लोगों के बीच लेकर जाएँगे तो लोग तार्किक विचारों को सुनने- समझने और अपनाने के लिए तैयार होते हैं।