दुनिया की बीमारियों का हल हिंदुस्तानी तहजीब
-सचिन श्रीवास्तव
बदलाव: हमारे दौर में संवेदनाएं खत्म हुई हैं। सबसे बड़ी गिरावट रिश्तों में आई है। इसीलिए हमें गंभीरता से सोचना चाहिए कि संवेदना और रिश्ते कैसे बचेंगे। मुङो लगता है कि साहित्य हमें नया जीवन देगा। हमें नई नस्ल को साहित्य की तरफ लाना चाहिए। यह काम समाज को ही करना है, जनसाधारण को; क्योंकि समाज में बड़ा बदलाव तो जनसाधारण से ही आता है। बदलाव के लिए राजनीति पर भरोसा करना कोई बहुत अक्लमंदी की बात नहीं है। खासकर मौजूदा राजनीति से तो अपेक्षा करना नादानी है। हर हिंदुस्तानी की जिम्मेदारी है कि अपनी संस्कृति, अपनी तहजीब बचाने के लिए वह खुद आगे आए।
एक कदम: मेरा मानना है कि आज के पाठ्यक्रम में कोई संवेदना नहीं है। वह साहित्य से दूर है। एक पंक्ति इंसान को बदलने के लिए मजबूर कर सकती है। साहिर की एक पंक्ति है- छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए.. यह एक शेर इंसान में बदलाव ला सकता है। सारी दुनिया में बदलाव किसी एक विचार, एक संवेदना से आए हैं। अगर कहीं कोई एक पंक्ति लिखी जा रही है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि कोई बदलाव, कोई परिवर्तन रचा जा रहा है। इसके लिए नई पीढ़ी को साहित्य प्रेमी बनाना सबसे जरूरी है। साहित्य कोई फुलटाइम जॉब नहीं है। अगर एक पंक्ति भी कोई पढ़ रहा है, तो बड़ी से बड़ी संभावना है। एक जमाने में मेरा शेर काफी मशहूर हुआ था- बदनजर उठने ही वाली थी किसी की जानिब, अपनी बेटी का ख्याल आया, तो दिल कांप गया.. इसे मैंने दिल्ली में एक ऑटो पर लिखा देखा। तो लगा कि यह ऑटो की भी जरूरत है। सड़क की जरूरत है। संवेदना कहीं भी हो, साहित्य में वह अच्छा, रच लेती है। जाहिर है कि साहित्य के लिए किसी क्लास की जरूरत नहीं है। पहले हमारे सिलेबस में साहित्य था, आज वह गायब है। इतिहास से मौजूदा पीढ़ी को बावस्ता कराने की कोशिश नहीं है। न अब हम दधीची को पढ़ते हैं, न परशुराम को, न राम को, न निजामुद्दीन को न मोइनउद्दीन चिश्ती को।
मिट्टी से जुड़ाव: अपनी मिट्टी से जुड़ाव स्वाभाविक है। बचपन में कोई अपने पैतृक घर में थोड़ा अरसा भी रहा हो, तो मुहब्बत हो जाती है। मुङो भी है। शायरी में एक सिस्टम है अपने नाम के आगे शहर जोड़ने का, सो हमने भी लगा लिया। फिराक साहब से लेकर हफीज साहब तक परंपरा रही ही है। हां, इतना जरूर है कि मैंने कोई झूठ नहीं बोला। नवाज मेरा नाम है, और देबवंद का रहने वाला हूं।
विदेश और हिंदुस्तान: नई पीढ़ी शायद मेरी सोच से इत्तेफाक न रखे, हो सकता है कि मुङो पुरानी सोच का कहा जाए, लेकिन मैं यकीनी तौर पर मानता हूं कि दुनिया की बड़ी बीमारियों का इलाज हिंदुस्तानी संस्कृति में है। दिक्कत यह है कि हम अपनी तहजीब को छोड़कर दूसरों की संस्कृति के पीछे दौड़ रहे हैं। इससे भी बड़ी खराब बात यह है कि दूसरों ने हमारी बेहतर चीजें अपनाई हैं, लेकिन हमने वेस्टर्न कल्चर की खराबियों को अपना लिया है। किसी की अच्छाई को अपनाना कोई बुरी बात नहीं है। असल में, जो पेड़ अपनी जड़ें छोड देते हैं, वे कभी हरे नहीं होते। मैं अपनी भारतीय परंपरा की नई आबोहवा, नई सोच के साथ जिंदा रहना चाहता हूं।
फिल्में: पहले जो फिल्में हुआ करती थीं, वे जीवन का प्रतिबिंब हुआ करती थीं। आज हमारी बदनसीबी है कि हमारी जिंदगी में फिल्मों का दखल है। पहले फिल्मों पर जीवन असर डालता था, आज फिल्में जीवन पर असर डाल रही हैं। हालांकि किसी भी चीज का असर सिर्फ बुरा नहीं होता। दिक्कत यह है कि फिल्मों से जो सीखना चाहिए वह भी नई पीढ़ी नहीं सीख रही है।
आज की लिखावट : आज के शायर काफी अच्छी चीजें लिख रहे हैं। हाल ही में लिखने का चलन बढ़ा है। टेक्नोलॉजी वगैरह का असर तो पड़ा ही है। असल में यह हुनर रफ्ता-रफ्ता ही आता है। एक उदाहरण है साइकिल चलाने की कला का। इसे सीखने के लिए पीछे एक पकड़ने वाला चाहिए होता है। बस दिक्कत यह है कि आज की जेनरेशन बिना पढ़े ही लिखना चाहती है। शायरी या कविता में मैं हिंदी और उर्दू के मेल का पक्षधर हूं। जब करीब आते हैं, तो कई नई जमीन तैयार होती हैं। कहते हैं न कि करीब आओ तो शायद हमें समझ लोगे, ये फासले तो गलतफहमियां बढ़ाते हैं।
वे पढ़ रहे हैं : अल रिसाला, मैगजीन को मैं नियमित रूप से जरूर पढ़ता हूं। इधर पाकिस्तान की शायरा रिहाना रिजवी की एक किताब पढ़ रहा हूं। सुमन अग्रवाल चैन्नई की शायरा है, उनकी किताब ‘मुङो महसूस करके देख’ भी पढ़ रहा हूं। रिहाना रिजवी ने फीमेल की संवेदना को पोइट्री बनाया है। परवीन शाकिर बहुत बड़ी शायरा थीं, उनके बाद नए तेवर, नए चिंतन के साथ रिहाना ने शायरी की है। सुमन अग्रवाल ने बहुत गहराई से औरत की गिरहों को खोला है। यह दूर तक साथ देने वाली शायरी है। मेरा मानना है कि भाषा सादा हो, सरल हो और शायरी में सोच हो, तो आदमी पर असर करती है।
”जनवाणी अच्छा आ रहा है। किसी भी नई चीज का आना उम्मीद जगाता है। इसमें ठीक सोच की खबरें आती हैं। पॉजिटिव सोच की खबरें आती हैं, जो आज के दौर की जरूरत भी हैं। जिंदगी में पॉजिटिव रहना ही सबसे बड़ी बात है।”
(27 नवंबर को जनवाणी के पुलआउट रविवाणी में प्रकाशित)