ब्रिक्स देशों की कृषि समिट शुरू : वहां करोड़ों कैसे कमा रहे किसान
24 सितंबर 2016 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित |
सचिन श्रीवास्तव
नई दिल्ली में शुक्रवार से दो दिवसीय ब्रिक्स कृषि सम्मेलन की शुरुआत हुई है। इसी बीच खबर आई है कि भारत का खरीफ उत्पादन इस बार 13.5 करोड़ टन तक पहुंच गया है। यह अब तक का सबसे ज्यादा उत्पादन है। देश के कुछ राज्यों में कृषि वृद्धि दर 20 प्रतिशत के आसपास है। इसके बावजूद किसानों के हालत खराब हैं। कृषि को लाभ का धंधा बनाने के जुबानी वायदों के बीच तल्ख हकीकत यह है कि देश के हर हिस्से में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। तो क्या मान लिया जाए कि किसानी एक पिछड़ा हुआ काम है? इस सवाल के जवाब से पहले दुनिया के दूसरे मुल्कों पर नजर डालनी चाहिए, जहां के किसान करोड़ों की कमाई कर रहे हैं। आखिर किसानों के लिए स्वर्ग बने इन देशों में ऐसा क्या खास है, जो हम करने से चूक जाते हैं….
28877 अरब रुपए का कृषि उत्पादन करते हैं भारतीय किसान हर साल
तकनीक का साथ: इस्राइल और जापान से सीखने की जरूरत
दुनिया के जिन देशों में कृषि कमाई का बड़ा जरिया है, वहां तकनीक ने अहम भूमिका निभाई है। इस्राइल कृषि तकनीक के मामले में सबसे आगे है। महज 20 प्रतिशत सिंचित जमीन के बूते इस्राइल दुनिया के दस बड़े उत्पादकों में शुमार है। इसकी वजह उसकी तकनीकी है। वहीं चारों ओर से समुद्र से घिरे जापान ने अपनी कमजोरी को ही ताकत बनाया। इस एशियाई देश की महज 12 प्रतिशत जमीन कृषि योग्य है। इस खामी के बजाय जापान ने अपने समुद्री तटों पर ध्यान दिया और आज जापान सीफूड का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है।
हमारी कमजोरी: इस्राइल में पांच यूनिवर्सिटी पूरी तरह से कृषि रिसर्च पर केंद्रित हैं, भारत में कृषि रिसर्च बेहद पिछड़ी है। विशाल समुद्र तट के इस्तेमाल के लिए भी कदम नहीं उठाए गए हैं।
26 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रहा है इजराइल का कृषि उत्पादन बीते दो दशक से
34 सौ अरब रुपए का कृषि उत्पादन है जापान का सालाना। दुनिया का 10वां सबसे बड़ा कृषि उत्पादक।
प्रयोगों में अव्वल: यूरोपीय देशों ने किसानों को जोड़ा सीधे बाजार से
यूरोपीय देशों की आबोहवा ज्यादा फसलों के लिए मुफीद नहीं है। इस कमजोरी से पार पाने के लिए यूरोपीय देशों ने प्रयोगों का सहारा लिया है। बीटी फसलों का दौर हो या फिर वैश्विक जरूरत और फूड इंडस्ट्री में फसलों की खपत का मामला, यूरोप ने अपने किसानों को सीधे बाजार से जोड़ दिया है। तीसरी दुनिया के देशों में नाइजीरिया प्रयोगात्मक खेती का बेमिसाल उदाहरण है। नाइजीरिया का कुल सालाना उत्पादन 7106 अरब रुपए का है, जो उसे दुनिया का छठवां सबसे बड़ा उत्पादक बनाता है।
हम क्यों पीछे: देश के अधिकांश हिस्सों में पारंपरिक खेती होती है। उत्तरी हिस्से में प्रयोगों के अच्छे परिणाम सामने आए, लेकिन यहां भी बीते दो दशक में हालात बदतर होते जा रहे हैं।
17 प्रतिशत हिस्सेदारी है नाइजीरिया की कृषि व्यवस्था की देश की जीडीपी में
22 हजार अरब का कृषि उत्पादन करते हैं यूरोपीय देश हर साल
मिट्टी की ताकत: ज्यादा जमीन के सहारे अत्याधिक लाभ
जिन देशों के पास खेती की जमीन अधिक नहीं है, उन्होंने तकनीक की मदद से खुद को उन्नत बनाया है। जिनके पास जमीन ज्यादा है, वे अपने प्रयोगों के सहारे किसानी को फायदेमंद बना रहे हैं। इसका बड़ा उदाहरण चीन है, जिसकी उत्पादन क्षमता दुनिया में सबसे ज्यादा है। इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया ने ऑर्गेनिक खेती के सहारे अपनी जमीन का बेहतरीन इस्तेमाल तो किया ही है दुनिया को राह भी दिखाई है। ऑस्ट्रेलिया में प्रति एकड़ किसान का लाभ 4 लाख रुपए से ज्यादा है। ऑस्ट्रेलिया ने उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल कर उदाहरण सामने रखा है।
हमारी कमी: भारत में जमीन प्रचुर मात्रा में है, लेकिन प्रति एकड़ उत्पादन क्षमता बेहद कम है। उर्वरकों का अत्याधिक इस्तेमाल भी जमीन की उत्पादन क्षमता को प्रभवित कर रहा है।
72896 अरब रुपए का चीन का प्रति वर्ष कृषि उत्पादन। दुनिया में सबसे ज्यादा।
3 प्रतिशत की हिस्सेदारी है ऑस्ट्रेलियाई जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी
सरकारी नीतियां: अरबों की सब्सिडी देते हैं ब्रिटेन-अमरीका
ब्रिटेन और अमरीका अपनी कृषि व्यवस्था को सहारा देने वाले अव्वल देश हैं। एक ओर जहां किसानों की आय पर टैक्स नहीं है, वहीं फसल के बाजार मूल्य से डेढ़ गुना तक का बीमा और भारी भरकम सब्सिडी से अमरीकी और ब्रिटिश किसान करोड़ों का लाभ अर्जित करने में कामयाब होते हैं। डब्ल्यूटीओ के जरिये भी अमरीका ने वैश्विक बाजार में अपने किसानों की धमक बढ़ाई है। यह दीगर बात है कि दुनिया के दूसरे देशों के किसानों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।
भारतीय नीतियां: लंबे समय से कृषि नीति की बात हो रही है, लेकिन जमीन पर यह दिखाई नहीं देती है। किसान राजनीति का बड़ा मुद्दा हैं, लेकिन उनकी जरूरतों को पूरा करने की इच्छाशक्ति की कमी है।
1340 अरब रुपए की सालाना सब्सिडी देता है अमरीका अपने किसानों को
6 प्रतिशत आबादी ही अमरीका और ब्रिटेन की निर्भर है कृषि पर
भविष्य की तैयारी: कारपोरेट या कोऑपरेटिव खेती से उम्मीद
ब्राजील ने कृषि को कॉरपोरेट सेक्टर में ढालने की तैयारी कर ली है। यूरोप की तर्ज पर यहां भी बड़ी कंपनियों ने खेती में बाकायदा कर्मचारियों की भर्ती कर भविष्य के लिए कमर कस ली है। इसके बेहतर परिणाम भी देखने में आए हैं। छोटे किसानों की हालत दुनियाभर में खराब है। कई देश कोऑपरेटिव आंदोलन के तहत छोटे किसानों को साझा खेती के लिए बढ़ावा दे रहे हैं, तो कई देशों में कंपनी आधारित कॉरपोरेट खेती में भविष्य देखा जा रहा है।
हम उलझन में: भारत में कोऑपरेटिव आंदोलन दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में असर डाल रहा है, लेकिन उत्तर भारत समेत अन्य इलाकों में जाति व्यवस्था साझा खेती की राह में बड़ा रोड़ा है।
45 प्रतिशत यूरोपीय खेती कॉरपोरेट कंपनियां कर रही हैं
2 गुना लाभ होता है बड़े किसानों को प्रति एकड़, छोटे किसानों के मुकाबले