अपराध का रंग काला क्यों है?

काला पक्ष, कला का नहीं होता, अपराध का होता है। भाषाई दृष्टि से कला के बिल्कुल नजदीकी शब्द का अपराध से रिश्ता जोड़ना तब अटपटा नहीं लगता, जब पूरी दुनिया की काली और अंधी गलियों में दौड़ती, सांस लेती और थमककर टोह लेती जिंदगी अपनी पूरी धड़कन के साथ सुनी जाती है। मैं नहीं जानता कि अपराध पर कालेपन की छाप के तीव्र विरोध ने काले चेहरों को खूरेंजी के लिए उकसाया या फिर काले होने की चिढ़ का यह मनोवैज्ञानिक विघटन था।
बहरहाल, देखो तो लगता है कि अपराध और कालापन एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, लेकिन सोचो तो यह कितना गलत है। जॉर्ज बुश नामक अपराधी का रंग काला नहीं था और मार्टिन लूथर जैसे संत की रंगत गोरी नहीं थी। रात और दिन का फर्क भी इसमें शामिल है, जैसे मनमोहन सिंह नामक एक प्रधानमंत्री ने किराना व्यवसाय के सहारे अपनी करामात दिन के उजाले में दिखाई थी, जबकि इसी देश से विदेशियों को बाहर करने की साहसी कार्रवाइयों की रूपरेखा रात के अंधेरे में बनी। कई-कई उदाहरणों और फर्कों के साथ समझा जा सकता है कि अच्छाई और बुराई के बीच काले और सफेद की दीवार कभी नहीं रही है। काला जितना भला है, सफेद उससे भोला और निश्छल है, ठीक वैसे ही जैसे सफेद जितना दगाबाज है, काला उसी अनुपात में टिकाऊ और भरोसे की आदिम गारंटी।
इसके बावजूद मुझे राजकमल चौधरी की काली और अंधी गलियों में जाने की सलाह से चिढ़ है, तो इसके मजबूत कारण क्या हो सकते हैं?

यह भी पढ़ें:  हिंदी का सोशल विस्तार : हिंदी बोलने को बेताव इंटरनेट वर्ल्ड