राजनीति की पारिवारिक कलह : बड़े लोकतंत्र की तल्ख हकीकत
17 सितंबर 2016 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित |
सचिन श्रीवास्तव
उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी दल की हालिया खींचतान भारतीय राजनीति के गंभीर दर्शकों के लिए कोई नया दृश्य नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की तल्ख सच्चाई है कि इसके ज्यादातर राजनीतिक दल अलोकतांत्रिक हैं और किसी विचार के बजाय परिवारवाद से संचालित होते हैं। वंशवाद की जकडऩ में उलझी इस देशज राजनीति में पारिवारिक विवादों का लंबा इतिहास है। जम्मू-कश्मीर के अब्दुल्ला व मुफ्ती परिवार से लेकर केरल के करुणाकरन व पिल्लई परिवार तक भारतीय राजनीति घरानों की दीवारें इसकी गवाह रही हैं। तो कभी-कभार ये कलह सार्वजनिक भी हुई है। गुजरात की राजनीति में पटेल, गायकवाड़ और करोट घरानों की धमक हो, या पूर्वोत्तर में संगमा, गोगोई खानदानों का वर्चस्व, हर राज्य में परिवारिक विरासत को विधानसभा से लेकर संसद तक संभालने की कोशिशें होती रही हैं। इन कोशिशों में खुद परिवारों के बीच कलह तेज हो जाती है। ताकत और सत्ता पर कब्जे के हालिया उदाहरण से साफ होता है कि आखिर क्यों देश के तमाम नेताजी अपनी गद्दी किसी बाहरी को सौंपने में हिचकते हैं।
महत्वाकांक्षाओं का टकराव
सपा का हालिया विवाद महत्वाकांक्षाओं के टकराव का ताजा उदाहरण है। इससे पहले भी भारतीय राजनीति में महत्वाकांक्षाएं टकराती रही हैं। आंध्र प्रदेश में टीडीपी का सत्ता हस्तांतरण हो या फिर महाराष्ट्र में शिवसेना की टूट, इसके कई उदाहरण हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस महत्वाकांक्षाओं की टकराहट से सबसे ज्यादा जूझती रही है। हर दशक में दर्जनों बार पार्टी में बगावत के सुर उठते रहें है, जो असल में महत्वाकांक्षी राजनीतिकों की जमीन पुख्ता करने की कवायद ज्यादा रहे।
लोकतंत्र का प्रहसन
भारतीय राजनीतिक लोकतंत्र में सत्ता की सीढिय़ां चढऩे के लिए जिस पुख्ता जमीन की जरूरत होती है। वह राजनीतिक परिवार आसानी से मुहैया करा देते हैं। यही वजह है कि क्षेत्रीय दलों के वरिष्ठ नेताओं की अगली पीढिय़ां बीते दो दशकों में तेजी से संसद और विधानसभा की दहलीज लांघती रही हैं। इसका खामियाजा लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही भुगतना पड़ा है, जिसमें आम जनता के बीच से कोई बड़ा नेतृत्व नहीं उभरा।
समाजवाद से परिवारवाद तक
मुलायम सिंह यादव ने डॉ. राममनोहर लोहिया से राजनीति का ककहरा सीखा था और बीती सदी के आखिरी दशक में गांधीवादी समाजवाद को अपना आदर्श बनाया था। बीते दो दशकों में गांधीवादी समाजवाद की पगडंडी से होते हुए मुलायम परिवारवाद की सड़क पर पहुंच चुके हैं। हालत यह है कि मुलायम परिवार के 13 सदस्य संसद से लेकर पंचायत तक जन प्रतिनिधि हैं। यह संख्या आगामी विधानसभा चुनाव में बढऩा तय माना जा रहा है। इन अपनों के बीच सामंजस्य बनाना मुलायम की बड़ी चुनौती है।
सामाजिक मूल्यों से मिलता है बढ़ावा
फिलीपींस के एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट पॉलिसी सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के कारण राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा मिलता है। रिपोर्ट कहती है कि भारतीय राजनीति में पारिवारिक प्रभुत्व के कारण लोकतंत्र की मजबूती बाधित हुई है। विकसित देशों में भी कुछ गिने-चुने परिवार राजनीति में हैं, लेकिन वहां विरासत पहचान देती है, सत्ता में आने की गारंटी नहीं।
10 में से 3 सांसद राजनीतिक चिराग
2011 में ब्रिटिश लेखक पैट्रिक फ्रेंच की भारतीय राजनीति में परिवारवाद पर आधारित एक किताब आई थी। इस किताब के मुताबिक, भारतीय संसद के 30 प्रतिशत प्रतिनिधि किसी राजनीतिक पारिवार से ताल्लुक रखते हैं। वहीं 70 प्रतिशत महिला सांसदों की पृष्ठभूमि राजनीतिक है। पैट्रिक के मुताबिक, 30 साल से कम उम्र के 95 प्रतिशत सांसद किसी राजनीतिक घराने के वारिस होते हैं।